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किसीको ज्ञात न हो सका । तथा उस बालकको ले जाकर चन्द्रशेखरने अपनी स्त्री यशोमतीके सुपुर्द किया । यशोमती अपने ही गर्भसे उत्पन्न हुए पुत्रकी भांति उसका लालन-पालन करने लगी। स्त्रियों में स्नेह बहुत ही होता है । जब वह बालक चन्द्राङ्ग तरुणावस्थाको पहुंचा तो पतिवियोगसे पीडित यशोमती उसकी सुन्दर छवी देखकर विचार करने लगी कि, "जिसका पति हमेशा परदेशमें रहता है वह स्त्री जैसे पतिका मुंह नहीं देख सकती उसी भांति चन्द्रवतीम आसक्त निज पति चन्द्रशेखरको मैं भी नहीं देख सकती, अतएव अपने हाथसे लगाये हुए वृक्षका फल जैसे स्वयं ही खाते हैं उसी भांति स्वयं पालन किये हुए इस सुन्दर तरुण पुत्रको ही पति मानकर पालन करनेका फल प्राप्त करूं." यह विचार विवेक तथा चतुरताको कोनेमें पटक उसने पुत्रसे कहा कि, "हे भद्र! जो तू मुझे अंगीकार करेगा तो तुझे सम्पूर्ण राज्य मिलेगा और मैं भी तेरे वशमें रहूंगी' ऐसे वचन सुन कर अकस्मात् हुए भयंकर प्रहारसे पीडित मनुष्य की भांति दुःखित होकर चन्द्राङ्ग, कहने लगा. "हे माता ! तूं ये कानसे सुने भी नहीं जा सकते तथा मुखसे बोले भी नहीं जा सकते ऐसे अयुक्त वचन क्यों बोलती है ?'' यशोमती कहने लगी कि, "हे सुन्दर ! मैं तेरी माता नहीं, बल्कि मृगध्वज राजाकी रानी चन्द्रवती तेरी माता है. यह सुन सत्य बात जाननेके लिये सत्यप्रिय चन्द्राङ्कका मन बहुत