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________________ श्री सम्यक्हार. कीतनाभेद. ते केटलीकवारावे ॥ उपशम ॥१॥ तथासा स्वादन ॥ २ ॥ एबेसमकित उत्कृष्टंच्यावेतो पांचवारश्रावे क्षायक॥१॥ तथावेदक॥२॥ एबेसंसारमाएकवार यावे ह वे एहनोविरह काल कहे छे॥ उपशम ॥१॥ ॥सास्वादन ॥ २ ॥ क्षायोपसम॥३॥एत्रणनोविरहकाल उत्कृष्टोअर्धपूद्गल परावर्तन होय जघन्यथीत्र्यंतर मूहूर्त जाणवं क्षायकतथावे द॥ २ ॥ एबेसमकीतनो विरहकालहोयनहि शामाटेजे वेदकसमकीतनीरहेवानीस्थिती एकसमानीछेत्र ने संसार मांनमतां एकजीवएकवार वेदकसमकीतपामे बीजीवार पामेनहत्यारे केनी साथे विरहकालमेलवीए। माटे एहनेवि रहकालहोयनहि तथाक्षायकसमकीत व्यापछीजाय नहि व्याविना विरहकालयायनहि एटलामाटेवे दकतथाक्षायक एबेनेविरहका लहोयनहि एटलेसमकीत ना स्वरुपनाने कीधा पण नव्यप्राणी जेनेजेवाप्रकार नोक्षयोपसमहोय प्रेटलेजेवोक्षयोपसमते भेदधिरजरापी ने अंगीकारकरवो हेजव्यप्राणियो पोतानीबुद्धि निरमल राखी शुद्ध उपियोगेकरीने समकीतनीरुचि श्राचारप्रमा णेपालवी हवेजेसमकीतछे तेबीजाजीवने श्रोलख्यामांके मत्रावे तेनुंस्वरुपकहेछे जेलींगलक्षण इत्यादिकजोया थकी मालमपडेते के छे सदहणाचा ॥४॥ लींग ॥ ३॥ वि नय०॥१०॥शुद्धी ॥३॥ दोष॥ ५ ॥ प्रजाविक॥८॥भूषण ॥५॥ ४८
SR No.022174
Book TitleAdhyatma Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukammuni, Hirachand Vajechand
PublisherHirachand Vajechand
Publication Year1880
Total Pages738
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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