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________________ ३६ श्रीसम्यकद्वार. तेहने संशइकमिथ्यात्व कहिए एहसंशइक मिथ्यात्वरुप चोथोनेद ॥४॥ अथप्रणाभोगरुप मिथ्यात्वनोपांचमोभेद कहिएछे जेणाभोगतेसमझणविनाप्रवर्ततुं तेजीवजी वादिकनुंस्वरुप जाणेनहि समझेपनहि संज्ञापणनहि एकंद्रियादिकपंचंद्रियपर्यंत नेणाभोगीक मिथ्यात्वकहि एएपांचमोभेद ॥५॥ एटलेपांचमिध्यात्वकह्या बारश्रवरत के ० ॥ बारश्रवरति ॥ १२ ॥ तेकेइबेमणा ॥ १॥करण ॥ १५ ॥ नीयमछजीववहोइके ० ॥ एकमननिप्रवरत॥१॥ पांचइंद्रिछ अवरत||६ ॥ छकायजाणवि॥ इतिगाथानोर्थसमाप्तः ॥ ॥ इतिमुनिश्री हुकमचंदजि विरचिते द्वीतियोध्याय परीपूर्णम् ॥ २ ॥ एवंमिथ्यात्वजांणिटालिने समकित निप्राप्तियाएते समकितना ३ नेदछे उपसम ॥१॥ क्षयउपसम ॥२॥ क्षायक ||३|| तेमद्धेप्रथमजेजिवसमकित पांमेते उपसमस कितपांमे तेनुंस्वरुपदेखाउछे श्रनादिकालनोजीवमि थ्यात्विद्वतो तेकाललब्धपांमिनेमार्गानुसारीथाए तिहां त्रणकर्णकरे जथाप्रवरतिक ॥१॥ पूर्वकर्ण ॥ २॥ श्रनी वर्तिक ॥३॥ प्रथमथकिजथाप्रवर्तिकर्णकरे तेनिविधि कहिएछें ॥ ज्ञानावर्णी ॥१॥ दर्शनावर्णी ॥२॥ वेदनि ॥३॥ अंतराय ॥ ४ ॥ एच्यारकर्मनित्रिसकोडाकोडीसागरोप मनिस्थितिछे तमद्धेथि २९ उगणत्रिसकोडाकोडिए
SR No.022174
Book TitleAdhyatma Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukammuni, Hirachand Vajechand
PublisherHirachand Vajechand
Publication Year1880
Total Pages738
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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