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श्रीअध्यात्मछनुवि. ३११ जायनिनिन्नता रत्नत्रियवलिनिन्न नेदभावसबमटगयो एकलनावथयोलिन ॥८१॥ शत्रुनावयाकोनहि नहि रागोरवेप ॥ पुत्रपिताविचारनहि मगननावपरवेश ॥ ८२ ॥ द्रष्टिगोचरजेहोवे ज्यांदेखत्यांरुप मुर्तिभाव तेलहो तेतोरुपिस्वरुप ॥८३॥ तेरुपपुद्गल अनुप एनेमारेशीसगाइ एतोछेभवकूप॥८४॥ असंख्यप रदेशिहूंसदा अक्षयरुपकहेवाउ अमुर्तिगुणमाहरो एहि चितमालाउ॥८५॥ ज्ञानदर्शनचर्णनो साचोदिसुंपुज सु खअनंतुमाहरु प्रतक्षदेखिहूंज ॥८६॥ सर्वपरभावने टालिने निजघेररहमगन
रहमगन सुमताशुसगाइकरा तरत लिधुलगन॥८७॥कालअनादिनिविशरि भुल्योचेतनराय ममतामांललचाइरह्यो तेथीएदुखियोकेहेवाय ॥ ८८॥ हवेतेमुजसांभरि मलियोतेहनोसंग ममताकूमतानाठ गइ दुनोवाध्योरंग ॥८९॥ज्ञानअनंततेमाहरु हूंछउज्ञा नस्वरुप एदशाछेमाह्यरी जाणोभेदअनुप॥९०॥ वाको सखजेप्रगट्यो लोकमांहिनसमाय जाणनवालोजाणे सहि केणिहोठनत्राय॥९१॥अखंडरुपहेमाहेरो अविना शिअकलंक नीरविकल्पएरुपमां कोणहोवेएरंका॥९२॥ नेदनावसबमटगयो टल्योमनकोखेद आत्मनावेथिरह वो प्रगटहूवोअवेद ॥९३॥ नीजअनुनवथीएकहि अध्या त्मछनुजाण मुनिहूकमएनिजउल्लासथि उत्तमप्रगट्युए
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