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________________ श्रीज्ञानविलास. २५७ ॥ उक्तंचनाष्ये ॥ तस्माक्षुध्यध्याविसित्तं कार्य॥ अप्पात्म कारणमेव्यंती ॥ हवे कारण चोथुकहू संप्रदानहोनीज प्रातमसारके ज्ञान दर्शनचरणतला पर्जायदानहोत्रातमनेधारके ॥ हवे ० ॥ १८॥ प्रातमजनपिजे तेरीते होप्रगटकरवाकाजके तेमत्रा तमधर्मादरे दानदाता हो ग्राहकप्रभेदराज के॥ हवे ०१९॥ ॥उक्तंच॥देउसजस्सतसंपयाण॥मिहतं पीकारणंत स्सहे तदछित्ता उनकीरइतंवीणाजंसो ॥ हवेउपादांनसांनलो कारकहोपांचमोछेजेह के श्रातम गुणपरतीपणे ज्ञानदर्शनहोचारित्रतेह के ॥ हवे ०२०॥ तत्वरमणनीराधारता तत्वरुचीहोतत्वरमणादिकजेह के हंसकनीराबाधता जथार्थ होनासन गुणगेह के ॥ हवे ० ॥ २१॥ परनावदुरेत्यागतो जोगीहो परनावनातेह के स्व स्वरुपभोगता नीजवीरज हो फोरवे गुणगेह के ॥ हवे ०२२॥ | श्रातमसिद्धिरुपजे उतकृष्टोहोकारजनोकारणएहके प्रात मशक्तिप्रगटहोवे स्वच्प्रनुजाई होजाणो गुणगेहके ॥ हं ०२३॥ ॥उक्तंच॥ साधकत्तमंकारणंकरएं। हवेच्अधीकरणजाणिये स्वपर्यायनोहोत्राधारछे एहके व्यापव्याप्तसंबंधछे श्रातमनोहोपजयथीछे तेहके ॥ हवे ० २४ ॥ स्थानकातमा पर्जायने होरेहेवानुठामके खट कारक एनाखिया संक्षेपेहोदाख्याछेएम के हवे ०२५॥तेम 33
SR No.022174
Book TitleAdhyatma Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukammuni, Hirachand Vajechand
PublisherHirachand Vajechand
Publication Year1880
Total Pages738
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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