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श्रीवास्तुकपुजा.
वरती नारी ते देखी ॥ ताकीदथी दूर उवेखी ॥ सद० ५ ॥ सुधर्म बुद्धी तव श्रावे ॥ चोकडी दोंय दूरे जावे ॥ पा पनो खजानो खुट्यो ॥ मोहनो परीबल लुट्यो ॥ सद० ६ ॥ प्रदेश संख्यनी रचना || निर्मल करवा थइ जच ना || संजम श्री वेगे आवी ॥ कारक समेत ते लावी ॥ सद० ७ ॥ गुणठाणुं सातमुं तेह ॥ फरसतां हूवो गुण गेह ॥ छठे सातमे रमता ॥ ही चोलाकारे करता ॥ सद० ८॥ प्रमत श्रप्रमत जाण ॥ सिद्धांतमांही वखाए ॥ एम वास्तुक ज्यारे कीधी ॥ सदगुरु वचनथी लीधी ॥ सद० .९ ॥ श्रपमंगलीक सरवे नाठां ॥ करमदल पण घाठां ॥ सरव मंगलिक मांही एह || दसवीकालक जाखे तेह ॥ सद० १० ॥ ए वास्तुक पुजा कीजे ॥ मनवंछीत फल तो लीजे ॥ मुनी कम वास्तुक कीधुं ॥ मनवंछीत कारज सीधुं॥सद०११॥काव्य प्रथम प्रमाणे पुजा चोथी संपूर्ण
पूजा पांचमी ॥ दुहा॥ वास्तुकपुजा स्वग्रहे ॥ कर तां नवनीध थाय ॥ पर वास्तुक दूरे करो ॥ सहेज शी वपुर जाय ॥१॥ ढाल ५ मी ॥ सोना रुपाके सोगटे सांही खेलत बाजी ॥ए देशी | वास्तुकपुजा घरत णी।। स्वस्वरुपमां लीजे ॥ संख परदेशछे श्रातमा ॥ तिहां कने कीजे ॥ स्वघर तो तेने कह्यं ॥ खेत्रथी जाण ॥ द्र व्यथी चेतन जाखीयो । एम चीत्तमां त्राण ॥ गा० १ ॥