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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नल दमयन्ती की कथा से मारने लगा। तभी वैदर्भी ने रथ से उतरकर राजा के हाथ को पकड़कर कहा-नाथ! आपके तूफानी आवेश के सामने ये तो मच्छर के समान हैं। रणभूमि में जो तलवार शत्रुओं के गजाधिराज की मुक्ताओं को मंगल करती है, वह कृपाण भीलों पर गिरती हुई क्या लज्जा को प्राप्त नहीं होगी। भैमी दमयन्ती ने नैषधि-नल को रोककर मन्त्राक्षर रूपी राक्षस के द्वारा भीलों का तिरस्कार करते हुए स्वयं हुंकार की। वे सती द्वारा की गयी हुंकार से गदा से घायल होने के समान दिग्मूढ़ होते हुए विभिन्न दिशाओं में पलायन कर गये। जयवादरूपी रथ पर आरूढ़ दम्पती उनके पीछे पीछे कुछ दूर तक जाने से रथ पीछे छूट गया। इधर वे भील रथ को भी ले गये। क्योंकिप्रतिकूले विधौ कुर्यात् पौरुषं पुरुषस्य किम्? भाग्य प्रतिकूल होने पर पुरुष का पुरुषत्व क्या कर सकता है? तब राजा नल ने अपनी भैमी दमयन्ती का हाथ अपने हाथ में लेकर पाणिग्रहण को स्मरण करते हुए जंगल में भ्रमण किया। दर्भ के तीखे नुकीले अग्रभाग से वैदर्भी के पाँव रक्त-रंजित हो गये। लाल पाँवों से वन की भूमि को चिह्नित करती हुई वह चलने लगी। पहले दमयन्ती जब चलती थी, तो उसके सिर पर पट्टबन्ध लेकर दासियाँ साथ में चलती थीं, पर अब वह पाँवों की व्यथा से व्यथित होकर पाद-विहार कर रही थी। वैदर्भी ने थकान से चकनाचूर होकर पसीने को बहाते हुए एक वृक्ष की छाया में विश्राम लिया। पंखे की तरह स्वयं के वस्त्र से नल ने उसे पंखा झला। तब भैमी ने कहा-स्वामी! मुझे तीव्र प्यास लग रही है। संताप से मानो सूखी हुई अमृत लता की तरह हो रही हूँ। नल ने कहा-अरे! कोई है? पयोगृहवास से सुगंधित, सरस, स्वच्छ, पानी हाथ में लेकर आओ। क्षणभर रुककर उसने आमने-सामने दायें बायें सर्वतः शन्य देखकर लज्जा से अपना मख झुका लिया। भैमी ने कहा-स्वामी! यह आपने क्या कहा? नैषधि ने कहा-स्वामित्व के पूर्व संस्कारों से ग्रसित मुझ द्वारा यह विप्लव कहा गया है। यह सुनकर दमयन्ती की आँख में आँसू आ गये। तब राजा ने कहा-हे देवी! मत रोओ। मैं इस समय सेनापति हूँ और तुम मेरी सेना हो। अतः स्थिर बनो। मैं कहीं से पानी लेकर आता हूँ। इस प्रकार कहकर खिन्न मानस से घूमते हुए राजा सोचने लगा-कहाँ तो वह साम्राज्य! जहाँ आँख के एक इशारे से राज्य मिल जाता था। कहाँ मृग के समान अनुकारिणी यह दशा। पर यह मन, वचन या दृष्टि का पात्र नहीं है। उसीके लिए तो मनष्यों का भाग्य घटित होता है। इस प्रकार विचार करते हए तालाब को देखकर पत्तों के सम्पट में वह पानी लेकर तृषित देवी को पिलाते हुए उस पर छत्री की तरह अपना अन्तःवस्त्र कर दिया। पैदल चलते हुए पग-पग पर खिन्न होते हुए एक दूसरे के हाथ का अवलम्बन लेते हुए जैसे-तैसे पथ को दोनों जने पार कर रहे थे। मार्ग-श्रम की थकान से नहाकर उठे हुए के समान पसीने से तरबतर अंगवाली भैमी बारबार राजा से पूछती कि अब और कितना चलना है? नल ने अश्रु भरे नयनों से कहा-देवी! यह अरण्य सौ योजन लम्बा है। अभी तक तो हमने बीसवें भाग का ही अतिक्रमण किया है। हे मार्तण्ड! ताप को अल्प करो। भैमी की कोमलता को देखो। पथ की दीर्घता का संहार करके कुण्डिनपुर को प्राप्त कराओ। हाय! श्रम से आर्त भीमसुता कैसे पीड़ित हो रही है! क्षते क्षिपथ किं क्षारं दुःस्थिते किमु र्निदयाः। घावों से लहुलुहान हो जाने पर भी इन निर्दयी दुःस्थितियों का नाश क्यों नहीं होता? हे मेघ! देवी के लिए स्वाजन्यता वश बादलों का क्षात्रपत्र क्यों नहीं धारण करते-इस प्रकार नल ने उपालम्भ दिया। इस प्रकार बोलते हुए वे दोनों उस अरण्य में आगे बढ़ रहे थे। उनका प्रतिकार करने में अक्षम सूर्य लज्जित 48
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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