SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् भरत चक्री की कथा काकिणी रत्न से बनायी हई रेखाएँ कालान्तर में यज्ञोपवित के रूप में बदल गयीं। ____ मूल में ५० योजन गहरा, ऊपर शिखर में दस योजन, उत्सेध में आठ योजन प्रमाण सभी पर्वतों का मण्डल ऐसे शत्रुञ्जय गिरी पर स्वामी एक बार विहार करते हुए पधारें। दिव्य समवसरण में धर्मदेशना दी। पुण्डरीक नाम के गणधर करोड़ों साधुओं से आवृत्त होकर केवलज्ञान को उत्पन्न करके चैत्र पूर्णिमा के दिन निर्वाण को प्राप्त हुए। देवों के द्वारा महिमामण्डित उस गिरि पर भरत द्वारा आदि अरिहंत तथा पुण्डरीक गणधर की प्रतिमा युक्त चैत्य बनवाया गया। जैसे भास्कर सूर्यविकासी कमल को विकसित करता है, वैसे ही अनेक देश-कुलादि में विचरते हुए भगवान् ने भव्यों को प्रबोधित किया। भगवान् के ८४ हजार साधु तथा तीन लाख साध्वियाँ थीं। तीन लाख पचास हजार श्रावक तथा पाँच लाख ४ हजार ५०० श्राविकाएँ थीं। दीक्षा दिन से लगाकर एक लाख पूर्व वर्ष तक संयम पालने के बाद नाभि-पुत्र भगवान् अपना मोक्ष काल जानकर अष्टापद गिरि पर गये। दस हजार साधुओं के साथ भगवान् ने चौदह भक्त की तपस्या के साथ पादपोपगमन अनशन स्वीकार किया। उनके वृत्तान्त को जानकर अन्तःपुर परिवार सहित भरत अष्टापद गिरि की ओर पैदल ही चल पड़ा। अत्यधिक शोक से ग्रसित होकर मार्ग की थकान को न जानता हुआ, पाँवों से निकलते हुए खून से लथपथ कदमों के चिह्नों से भूमि पर न्यास करते हुए, शिर पर स्थित आतपत्र के होते हुए भी परम आतप को सहन करता हुआ, छत्र धारण करनेवालों के हाथ में छत्र रहने पर भी परम दुःख से वह बिना छत्र के चल रहा था। अष्टापद पर्वत के समीप आकर वेगपूर्वक पर्वत पर चढ़कर उसने पर्यंकासन में बैठे हुए प्रभु को देखा। शोक हर्ष से आक्रान्त मन वाले भरत ने भरी हुई आँखों के साथ अञ्जलिपूर्वक नमन करके भगवान् के पास में बैठ गया। तब वहाँ इन्द्र-सुरेन्द्र आदि चारों जाति के देव आये एवं भगवान् से वन्दना करते हुए उनके नेत्र आँसूओं से भर गये। माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन पूर्वाह्न में त्रिजगत् प्रभु दस हजार साधुओं के साथ निर्वाण को प्राप्त हो गये। प्रभु जब आत्यन्तिक सुख रूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं, तो सुख को लेशमात्र भी नहीं जाननेवाले नारक जीवों को भी क्षणिक सुख का अनुभव होता है। भरत चक्रवर्ती तो यह सब देख-सुनकर तत्काल ही शोक मग्न हो गया। अचेतन की तरह उसके अंगों में किंचित् भी स्फुरणा नहीं हुई। भरत चक्री को इस प्रकार शोक से चेतनाशून्य जानकर शक्रेन्द्र ने उन्हें वापस चेतना में लाने के लिए उन्हें जोर से कसकर पकड़कर चीत्कारपूर्वक आक्रन्दन किया। उस आक्रन्दन को सुनकर भरत ने भी दुःख से भरकर ब्रह्माण्ड को गुंजाते हुए विलाप किया, जिससे शोकार्त तिर्यंच भी दुःख का अनुभव करने लगे। भरत को जागृत करके शक्र ने अपने शोक को दूर हटाते हुए स्वामी की उचित उत्तर क्रियाएँ की। फिर नन्दीश्वर द्वीप जाकर सभी देव-देवेन्द्रों ने अष्टाह्रिका महोत्सव किया। उसके बाद सभी अपने-अपने स्थान पर लौट गये। तब भरत चक्री ने वर्धकी रत्न के द्वारा वहाँ एक योजन चौड़ा ३ गाऊ उठा हुआ प्रासाद बनाया। जो रत्नकांति को फैलाता हुआ, आकाश में चित्र की भाँति उकेरा हुआ, लगता था। मानों आकाश में साक्षात् आकाशगंगा दिखायी दे रही हो। प्रासाद के ऊपर निर्मल इन्द्र ध्वजा लहरा रही थी। उस प्रासाद में ऋषभादि चौबीस ही अरिहन्तों के यथामान, यथावर्ण प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भरत ने स्वयं की। मेरे गुरु के पास करवाऊँगा तो मेरे गुरु आदि ही यहाँ रहेंगे, दूसरे नहीं। वे ही यहाँ व्याख्यान करेंगे। इस प्रकार की बातों से साधु निश्रा के बिना ही भरत ने वहाँ मूर्तियों की स्थापना की। इसी कारण से यह चैत्य आज भी अनि श्राकृत कहा जाता है। वहाँ से अयोध्या लौटकर कुछ वर्षों के बाद एक बार भरत चक्री अपने दर्पण भवन में गया। वहाँ अंगुली 38
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy