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________________ भरत चक्री की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् ने भी बाहुबली-सुन्दरी एक युगल शेष उनपचास पुरुष जोडों को क्रम से जन्म दिया। पुत्रों का कलाकलाप मातृकादि लिपि एवं ब्राह्मी-सुन्दरी आदि को अंकमालिका प्रभु के द्वारा ही बतायी गयी। इस प्रकार कुछ समय बीत जाने के बाद काल के दोष से युगलियों की प्रवृत्ति में कुछ-कुछ अन्याय दृष्टिगोचर होने लगा। कुछ युगलिकों ने हकार-मकार-धिक्कार नीति की अवहेलना करनी शुरु कर दी। तब युगलिकों के मुखिया ने प्रभु को यह सब अवगत कराया। तीन ज्ञान के धारी प्रभु ने ज्ञान से जानकर कहा कि लोगों के अन्याय का निवारक राजा होता है। लोगों ने पूछा-वह कैसे होता है? तो नाभिनन्दन ने कहा-सभी के द्वारा अभिषेक किये जाने पर वह जगत् का पति होता है। युगलिक राजा का अभिषेक करने के लिए जल लाने गये, तभी सुरेन्द्र का सिंहासन कंपायमान हुआ। शक्र ने अवधिज्ञान से जाना कि स्वामी के राज्यकाल का अवसर आ गया है। अतः उसने आकर स्वयं सर्वप्रथम उनका राज्याभिषेक किया। देवदूष्य वस्त्रों से उनके शरीर को ढककर, दिव्य आभूषणों से भूषित करके इन्द्रों ने प्रभु को अत्युच्च सिंहासन पर बैठाया। वे युगलिक भी कमल दल में पानी लाकर बड़े-छोटे के अनुसार क्रमिक खड़े रहकर प्रभु को देखकर विस्मित रह गये। देवदूष्य वस्त्रादि कहीं खराब न हो जाय, इस आशंका से युगलिकों ने उनके पाँवों का जल के द्वारा अभिषेक किया। शक्रेन्द्र ने उन युगलिकों का अपने स्वामी के प्रति विनयराग देखकर कुबेर के पास जो नगरी निर्माण करवायी थी उस नगरी का नाम विनीतानगरी रखा। फिर वे देवलोक चले गये। विनीतानगरी का दूसरा नाम अयोध्यापुरी भी पड़ा। नौ योजन चौड़ी बारह योजन लम्बी स्वर्णमय, रत्नमय भवनों के द्वारा आडम्बर से उल्लसित विनीतानगरी मर्त्यलोक में अवस्थित होकर मानो अलकापुरी पर हंस रही थी। ऐसी नगरी का निर्माण करके शक्र के आदेश से यक्षराज ने अक्षय वस्त्र, रत्नों का समूह एवं धन धान्यादि से उस नगर को पूरित किया। प्रभु के जन्म के बीस लाख वर्ष पूर्ण हुए। तब भारत की भूमि पर ओंकार वाङ्मय की तरह सर्वप्रथम राजा हुए ऋषभ ने ६३ लाख वर्ष पूर्व तक राजनीति व लोकनीति का प्रवर्तन किया। भरत क्षेत्र के देश, ग्राम, पुर आदि में बसते हुए लोगों द्वारा उनका अद्भुत ऐश्वर्य महाविदेह की लक्ष्मी के समान सर्वत्र प्रसारित हुआ। किसी समय जब धरा पर पुष्पकाल अवतीर्ण हुआ अर्थात् वसन्त ऋतु आयी उसके आगमन के साथ तरु उच्च रूप में विकसित होने लगे। वृक्षों ने भी पुष्पों से श्रृंगार किया। खिले हुए पुष्पों के रस से युक्त पपीहे गान करने लगे। निर्मल अनिल के संगम से लताएँ नववधूओं की तरह सात्विकभाव से कंपन को प्राप्त हुईं। कोयलें कामिनियों की तरह पंचम स्वर में गाने लगीं। आम्रवृक्ष आमों के भार से भूमि का स्पर्श करने लगे। ___तब परिवार के अनुरोध से स्वामी उद्यान में गये। वहाँ स्वतन्त्र रूप से लोगों को विलास करते हुए देखा। उनको देखकर प्रभु विषयों में विषादवान् हुए। विचार किया कि अहो! इस शरीर के द्वारा मेरे लिये आत्महित की कुछ भी चेष्टा नहीं की गयी। उनके इस प्रकार विचार करते ही लोकान्तिक देव उनके पास आये और कहा-प्रभु! जगत् के जीवों के हित के लिए तीर्थ का प्रवर्तन कीजिए। अवधिज्ञान से अपने संयम काल को जानकर राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना राज्य दिया। बलशाली बाहुबली को तक्षशिला का राज्य दिया। अङ्ग-बङ्गादि देश दूसरे अन्य पुत्रों को दिये। उद्घोषणा पूर्वक स्वामी ने वर्षभर तक दान दिया। शक्र की आज्ञा से कुबेर यक्ष नित्य भगवान के भण्डार को भरते रहे। वर्ष के अन्त में आसन चलित होने पर इन्द्र सपरिवार वहाँ आया और राज्याभिषेक की तरह दीक्षा का महोत्सव आयोजित किया। चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन अपराह्न में जगत्पति ने कच्छादि देश के राजाओं के साथ चार हजार लोगों के परिवार के साथ दीक्षा ग्रहण की। चार मुष्टि के द्वारा केशों का लोच करने पर इन्द्र के आग्रह से मस्तक के पीछे का 33
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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