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________________ जिनभवन बनाने की विधि तं नमह तं पसंसह तं झायह तस्स सरणमल्लियह। मा किणह कणयमुल्लेण पित्तलं इत्तियं भणिमो ॥ १५ ॥ उन अरिहन्त, अर्हन्त अथवा अरोहन्त को शिर से नमस्कार करो, वचन के द्वारा उनकी प्रशंसा, स्तुति करो, मन से उनका पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ व रूपातीत रूप से ध्यान करो, रागादि से डरनेवाले उनकी रक्षक रूप, मित्र रूप शरण में आश्रित हो । कहा गया है कि - सोने के मूल्य द्वारा पीतल को मत खरीदो । इसका यह अभिप्राय है कि वस्तुओं के नाम, वर्णादि की साम्यता होने पर भी महान् अंतर होता है। अतः भ्रान्ति में पड़कर स्वर्णमुल्य के तुल्य नमन, प्रशंसा ध्यान आदि से पीतल तुल्य सरागी देवों की आराधना न करो। और भी अक्कसुरहीण वीरं कक्कूर रयणाई पत्थरा दो वि। एरण्डकप्परुक्खातरुणो पुण अंतरं गरुयं ॥ | १ || पंथसरिसा कुपंथा सुवन्नसरिसाणि पित्तलाईणि । धम्मसरिसो अहम्मो कायव्वो नित्थ मइमोहो ||२|| कंकर एवं रत्न दोनों ही पत्थर हैं, एरंड और कल्पवृक्ष दोनों ही वृक्ष हैं, फिर भी इन दोनों में महान् अंतर है, वैसे ही सामान्य देव (सरागी देव) और वीर प्रभु दोनों ही देव होने पर भी उन दोनों में महान् अंतर है। पंथ के समान कुपंथ को, सुवर्ण के समान पीत्तल एवं धर्म के समान अधर्म को माननेरूप मति मोह नहीं करना चाहिए। यह गाथा का अर्थ है || १५ | सम्यक्त्व प्रकरणम् मैं उन देवाधिदेव को नमस्कार करता हूँ। वह नमनादि भगवान् की परम पदस्थ की प्रतिमा में ही है। वह प्रतिमा आलम्बन है और वह आयतन में स्थापित करके ही नमस्कार करना चाहिए। उस विद्यापन के उपदेश को कहते हैं मेरूव्य समुत्तुंगं हिमगिरिधवलं लसंतधवलधयं । भवणं कारेयव्यं विहिणा सिरिवीयरायस्स ॥१६॥ तथा मेरु के समान उत्तुंग, हिमगिरि के समान धवल, लहराती उल्लसित धवल ध्वजा युक्त श्री वीतराग का भवन विधि से करवाना चाहिए || १६ || विधिपूर्वक जो कहा गया है, उसे कहते हैं जिणभयणकारणविही सुद्धा भूमीदलं च कट्ठाई । भियगाणइसंघाणं सासययुड्ढी य जयणा य ॥१७॥ जिनभवन कारणविधि को कहते हैं - भूमि शुद्ध, निःशल्य हो एवं जिनभवन के लिए भूमि लेते समय किसी को (दूसरों को) अप्रीतिकर न हो। काष्ट, ईंट, पत्थर आदि शुद्ध-स्वभाव से निष्पन्न हों। अर्थात् ओर्डर देकर बनवाया हुआ न हो। उचित मूल्य में उस-उस वस्तु के ही व्यापारियों से ही खरीदे गये हों । सूत्रधार आदि कारीगरों को उनके कार्य की योग्यता अनुसार वेतन दिया गया हो, अधिक से अधिक दान द्वारा उन्हें संतुष्ट व प्रसन्न किया गया हो, जिससे उनके आशय की, शुभ अध्यवसाय की वृद्धि हो । जैसे पिच्छिस्सं इत्थ अहं वंदणगनिमित्तमगए साहू । कयपुन्ने भगवंते गुणरयणनिही महासत्ते ॥१॥ 25
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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