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________________ देवाधिदेव का स्वरूप (देव तत्त्व) सम्यक्त्व प्रकरणम् (८) अतिवृष्टि नहीं होती। (९) अनावृष्टि नहीं होती। (१०) ईति-भीति नहीं होती। (११) रोग नहीं होता। ये ११ अतिशय घाती कर्म के क्षय से प्रकट होते है। (१) आकाश में देव दुन्दुभि बजे। चँवर डोले। तीन छत्र मस्तक पर रहे। (४) रत्नमय ध्वजा चले। (५) पाद पीठ सहित सिंहासन होवे। (६) आकाश में आगे-आगे धर्मचक्र चले। (७) पाँव रखने के स्थान पर स्वर्ण कमल होवे। (८) कंटक औंधे मुख हो जावे। (९) तीन कोट की रचना होवे। (१०) अशोक वृक्ष रहे। (११) चतुर्मुखी देशना देवे। (१२) विहार में वृक्ष भी नमस्कार करते हैं। (१३) केश नाखून बढ़े नहीं। (१४) पक्षी भी प्रदक्षिणा करें। (१५) छः ऋतु इन्द्रिय अर्थ के अनुकूल होवे। (१६) सुगन्धित जल की वर्षा होवे। (१७) रात्रि में भी कम से कम एक करोड़ देव पास में रहे। (१८) अनुकूल पवन चले। (१९) पुष्पवृष्टि होवे। ये १९ अतिशय देव कृत हैं। इस प्रकार ये चौंतीस अतिशय तीर्थंकरों के होते हैं।।७।। अब प्रतिहार्यों को कहते हैंकंकिल्लि' कुसुम दुट्टि दिव्यज्झुणि' चामरासणाई च। भावलय ६भेरिछत्तं जयंति जिणं पाडिहेराई ॥८॥ गाथा का अर्थ इस प्रकार है - कंकलि, कुसुमवृष्टि, दिव्यध्वनि, चँवर, स्वर्ण सिंहासन, भामण्डल, भेरी, छत्र ये आठ प्रातिहार्य हैं।।८।। __विशेषता यह है कि मनुष्य, देव, तिर्यंच की भाषा संवादी दिव्य ध्वनि तीर्थंकरों की एक योजन तक ध्वनित होती है। 'पाडिहेराई' अर्थात् प्रतीहार का कर्म-प्रातिहार्य है। जैसे-प्रतीहार सदा पास में खड़ा रहता है, वैसे ही समवसरण के अभाव में भी अष्ट प्रातिहार्य सदा संमुख रहते हैं। अतिशय के मध्य में कह दिये जाने पर भी यहाँ अलग से कहा है। प्राकृत भाषा होने से विभक्ति का लोप सर्वत्र ही है।।८॥ ___ अब डेढ़ गाथा में अट्ठारह दोष कहकर उसे छोड़नेवाले स्वामी को दो पदों द्वारा प्रणाम करते हैं - 23
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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