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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्यक्त्व __ ज्ञानादि त्रिक-ज्ञान-दर्शन चारित्र रूप है। तप-अनशन आदि बारह प्रकार का है। क्रोध-निग्रह आदि क्रोधादि पर विजय प्राप्त करना है। ये चरण अर्थात् चारित्र के मूलगुण रूप हैं, क्योंकि इनका यावज्जीवन आसेवन किया जाता है। पिण्ड अर्थात् अशन-पान-खादिम व स्वादिम रूप है अथवा उपलक्षण से शय्या-वस्त्र-पात्र आदि की विशुद्धि, बयालीस दोष रहित होने से पिण्ड विशुद्धि चार है। समिति ईर्या आदि है। भावना-अनित्य आदि बारह हैं। जैसे - भावयितव्यमनित्यत्वमशरणत्वं तथैकतान्यत्वे । अशुचित्वं संसारः कर्माश्रवसंवरविधिश्च ॥१॥ निर्जरणलोकविस्तर धर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ताश्च । बोधेः सुदुर्लभत्वं च भावना द्वादश विशुद्धाः ॥२॥ (प्रशमरति १४९-१५०) अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, संसारत्व, कर्माश्रवत्व, संवरविधित्व, निर्जरत्व, लोक विस्तरत्व, धर्म ख्याततत्व चिन्तत्व, बोधि-दुर्लभत्व - ये बारह विशुद्ध भावना भानी चाहिए। प्रतिमा-मासिकी आदि है - मासाइ सत्तंता पढमाबिइ तईय सत्तराइदिणा। अहराइ एगराई भिक्खु पडिमाण बारसगं ॥१।। (आ. नि.-प्र, प्रव. सारो०-५७४) एक मास से लेकर सात मास तक की सात प्रतिमा, एक, दो, तीन, व सतरह दिन की प्रतिमा - ये चार मिलाकर ग्यारह प्रतिमा तथा एक रात्रि की प्रतिमा - ये बारह प्रतिमा भिक्षु की होती है। इन्द्रियों के स्पर्श आदि का निरोध जय है। प्रतिलेखना वस्त्र-पात्र आदि की होती है। गुप्तियाँ-मन आदि की हैं। अभिग्रह-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव विषयक होता है। ये सभी करण उत्तर गुण रूप हैं क्योंकि समय प्राप्त होने पर ही इनका आसेवन किया जाता है।।५८।।२६४।। अब सम्यग्-दर्शन व क्रिया की सहकारिता होने पर कौन किस स्वभाव से उपकार करता है, उसे कहते हैंसमग्गस्स पयासगं इह भवे नाणं तयो सोहणं, कम्माणं चिरसंचियाण निययं गुत्तीकरो संजमो । बोधव्यो नयकम्मणो नियमणे भावह एयं सया, एसिं तिन्हवि संगमेण भणिओ मुक्खो जिणिंदागमे ॥५९॥ (२६५) मोक्षार्थ के प्रवृत्ति में सन्मार्ग का प्रकाशक इस भव में ज्ञान होता है, यह ज्ञान सम्यग्दर्शन से अविनाभूत होता है क्योंकि मिथ्यादर्शन होने पर तो ज्ञान भी अज्ञान हो जाता है। क्रिया तप व संयम रूप से दो प्रकार की है। यहाँ तप चिरसंचित निश्चित कर्मों का शोधन रूप है। गुप्तिकर अर्थात् निरोधक संयम है, जो आने वाले नये पाप कर्मों को रोकता है। अपने मन में भी सदा ही यह भाव करता है। इन तीनों के संगम से ही मोक्ष होता है - यह जिनागम में कहा गया है। इसी कारण से ही तो "सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।" यह प्रतिष्ठित हुआ है। ज्ञान व तप शब्द को रखकर इन्हीं के माध्यम से यहाँ अंतिम मंगल किया गया है।।५९।२६५।। अब सूत्रकार अपने अभिधान की भंगी का प्रतिपादन करते हुए इस प्रकरण का उपसंहार करने के लिए कहते 322
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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