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________________ सुलसा की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् रमाकर, जटा धारी, विशाल अजगर को गले में लपेटे हुए नन्दी आदि अनुचरों से युक्त शिव बनकर अम्बड ने धर्म का कथन किया। हर्षित होते हुए लोगों ने उसका गुणगान किया। उसकी प्रशंसा करना तो दूर रहा, पर उसकी वार्ता भी सुलसा ने नहीं सुनी। चतुर्थ दिवस में उत्तर दिशा में जाकर अम्बड ने समवसरण की रचना की। जिनेश्वर होकर चार प्रकार की चतुर्मुख प्रतिमा की तरह होकर धर्म का उपदेश देने लगा। प्रसन्न होते हुए लोगों ने कहा - हमारी यह नगरी पवित्र हो गयी है, क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, हर तथा अर्हत् स्वयं हमारी नगरी में आये हैं। सुलसा को बुलाकर लाने के लिए अम्बड़ ने एक मनुष्य को सीखाकर भेजा कि जाकर उसको तुम इस प्रकार कहना - हे सुलसे! तुम परमाहती हो। अतः दूसरों को वंदन करना तुम्हे इष्ट नहीं है। पर यह तो स्वयं अरिहन्त पधारे हैं। अतः वंदन करने के लिए शीघ्र आओ। उसने कहा - ये चौबीसवें तीर्थंकर कभी नहीं हो सकते। यह तो कोई भी दाम्भिक है। दुष्ट बुद्धि वाला यह लोगों को धोखा दे रहा है। उसने कहा - हे महासती! विभेद से तुम्हें क्या प्रयोजन! जैसा है, वैसा है, शासन की प्रभावना तो हैं। सुलसा ने कहा - ऐसे प्रभावना नहीं होती, बल्कि अवमानना ही होती है। क्योंकि ये तो दाम्भिक ही है। इस प्रकार निराकृत होता हुआ वह व्यक्ति अम्बड़ के पास गया और सारा वृतान्त कहा। अम्बड़ ने भी उसके द्वारा आख्यात वार्ता को सुनकर प्रसन्नता पूर्वक दिल में विचार किया कि इस प्रकार भी विवेकिनी स्त्री वीर स्वामी के दिल में कैसे वास नहीं करेगी? जिसकी सम्यक्त्व मेरे द्वारा भी शठतापूर्वक चलायमान नहीं किया जा सका। तब सारा प्रपञ्च छोड़कर अम्बड ने सुलसा के घर में उच्च स्वर में नैषधिकी कहकर स्व-स्वरूप में प्रवेश किया। सुलसा ने उठकर ससंभ्रम होते हुए कहा - आओ! आओ! मेरे धर्मबन्धु! तुम्हारा स्वागत है, स्वागत है। स्वयं उसके चरण-प्रक्षालित किये तब उसने साधर्मिकवत्सलता के घर की समस्त अर्हत् प्रतिमाओं तथा उसको वंदन किया। उसको प्रणाम करने के बाद अम्बड ने भी कहा - हे बहन्! तुम्हें भी तिर्यग् लोक के समस्त कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यों के वंदन करवाता हैं। उन में संकल्प करो कि वे सब तम्हारे सामने ही हैं। उसने भी श्रेयसी भक्ति द्वारा संपर्ण चैत्यों को वंदन किया। अम्बड ने पुनः सलसा से कहा - भद्रे! तुम्हारे पुण्य का तो कोई पार नहीं है, क्योंकि तुम्हारी प्रवृत्ति मेरे पास से महावीर स्वामी ने स्वयं पूछवायी है। उसने भी अम्बड के वचनों को सुनकर रोमांचित होते हुए प्रसन्नता से वीर स्वामी को वन्दन किया, उनकी स्तवना प्रशस्त वाणी द्वारा की। विशेष परीक्षा करने के लिए अम्बड़ ने पुनः सुलसा से कहा - भद्रे! यहाँ पर ब्रह्मा आदि ने अवतीर्ण होकर धर्म का कथन किया। प्रणामपूर्वक सभी नागरिकों ने उसे सुना, पर तुम दृढ़ हो कि उसे कौतुक से देखने के लिए भी नहीं गयी। उसने कहा - जानते हुए भी नहीं जानते हुए की तरह यह क्या बोलते हो? हे भ्राता! तत्त्व-अतत्त्व का विर्मश नहीं करने वाले ये ब्रह्मा आदि कौन है? शस्त्र सहित, स्त्री संगी तथा द्वेष सहित होने से ये तो रागी हैं। जिनमें देवों का चिह्न मात्र भी नहीं, उनमें कैसी स्पृहा! रैवतक पर लाखों उद्यानों में सदा जो रमण करते हैं, जो नीलकण्ठी है, वे उत्कण्ठा सहित होने से क्या मनुष्य का निस्तारण करने में समर्थ हैं? जो गाद मांसल सुखों में चम्पक पुष्पों के उदर में पराग का पान करनेवाला है, वह मधुकर क्या कदाचित् किंशुक पुष्प में रति करेगा? राग द्वेष से विवर्जित, अदृष्टपूर्वश्री से युक्त श्री वीर स्वामी को देखकर अन्य किसी को देखने की वांछा ही कौन करेगा? तब अम्बड सुलसा को पूछकर बार-बार उसकी प्रशंसा करते हुए अर्हत् धर्म में स्थिरीभूत होकर अपने स्थान पर चला गया। सुलसा भी आर्हत धर्म का निर्मल रूप से प्रतिपालन करके, अन्त में अनशन करके समाधि द्वारा स्वर्ग में गयी। वहाँ से च्युत होकर आने वाली उत्सर्पिणी में यहीं ममत्व रहित पन्द्रहवाँ निर्मम नामक तीर्थंकर बनेगी। सुव्रत लेकर, कैवल्य श्री को उपार्जित करके, अद्भुत तीर्थंकर सम्पदा का उपभोग करके, धर्मदेशना से भव्यों को प्रतिबोधित करके सुखकारी श्रेयस्पुरी को प्राप्त करेगी। 315
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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