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________________ दुर्गन्धा की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् से पीड़ित राजा लंघन करके उठे हुए की तरह अपने आप को सैंकड़ों युगों से भी नहीं खाया हो - ऐसा मानने लगा। प्रमुख रसोइये को कहा - जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट जात का संपूर्ण भोज्य पदार्थ खूब सुंदर बनाओ। हे श्रेष्ठ रसोइये! भूख से पीड़ित मेरा एक-एक क्षण इस समय एक-एक युग के समान बीत रहा है। फिर सर्व रस से युक्त रसवती के शीघ्र ही निष्पन्न हो जाने पर खाने के लिए बैठते हुए राजा ने विचार किया - संगीत समारम्भ में पहले रंगभूमि को लोगों द्वारा भरा जाता है। तब आते हुए वणिकों द्वारा प्रायः-प्रायः स्थान प्राप्त होने पर मन्त्री आदि ने भी आकर स्थान प्राप्त किया। उनके पीछे-पीछे माण्डलिक भी अन्दर प्रवेश कर गये। ज्यादा क्या कहा जाय? राजा भी उन सब में समाकर बैठ गया। इस श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर जनों के पश्चात्-पश्चात्तर-पश्चात्तम के सभी के आ जाने पर समाये हुए देखकर राजा ने विचार किया कि अब इस दृष्टान्त से मुझे भी भोजन करना चाहिए। एक भी भोज्य पदार्थ अन्त तक भी मुझे नहीं छोड़ना है। पूर्व दिनों का भोजन भी मुझे आज ही करना है। इस प्रकार अत्यधिक अशनआकांक्षी होकर दुष्काल में व्याकुल भिखारी की भाँति राजा हो गया। फिर राजा ने शरु में जघन्य, फिर मध्यम, फिर उत्कृष्ट, उत्कृष्टतर रूप से यथाक्रम से भोजन किया। इस प्रकार घड़े को आकण्ठ जल से भरने की तरह राजा ने आकंठ भोजन कर लिया। सर्व भक्षी अग्रिकी तरह फिर भी वह अतृप्त रहा। अति-आहार करने से राजा को अब बहुत प्यास लगी। अन्तर में दुःसह्य दाह रूपी कष्ट तथा हृदय में शल व्यथा होने लगी। वैद्यों ने दवा द्वारा राजा का उपचार किया। सभी ने सर्वात्मना रूप से प्रयत्न किया, पर पीड़ा का उपशम नहीं हुआ। क्या अत्याहार को परम औषधि द्वारा जीर्ण किया जा सकता था? क्या चुल्लु भर छाछ मणभर दूध को दधि बना देगी? अति वेदना से आखिर राजा की मृत्यु हो गयी। क्योंकि कोई भी किसी को भी जीवन दान देने के लिए समर्थ नहीं है। इस प्रकार आकांक्षा दोष के कारण वह राजा संपर्ण साम्राज्य के ऐहिक सख का भाजन न बन सका। अमात्य ने तो निराकांक्ष रहते हए वैद्यों द्वारा प्रदत्त औषधि से जलाब, वमन, पसीने आदि के द्वारा काया का विशोधन कर लिया। जितना-जितना सहन होता, उतना-उतना सीमित-प्रमाण में खाते हुए क्रमशः उसका शरीर संपूर्ण कर्म में समर्थ हुआ। इस प्रकार निराकांक्षा द्वारा मंत्री ऐहिक सुखों का प्रशस्त पात्र बना एवं कल्याण स्वरूप सुसाधु बना। इस प्रकार धर्म रूपी वृक्ष की उज्ज्वल सम्यक्त्व रूपी जड़ पाकर भव्य शरीर धारियों द्वारा अन्यदर्शन की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। सम्यग्दर्शन का लाभ होने पर भी जो आकांक्षा-दोष का सेवन करते हैं वे स्वर्ग तथा अपवर्ग के सुखों के भाजन नहीं बनते, बल्कि मिथ्यात्व के पंक से युक्त होकर अधोगति में जाते हैं। सम्यक्त्व में एकाग्रचित्त होने पर वे ही सिद्धि के भाजन बन जाते हैं। __ इस सम्यक्त्व को निर्मल, सुदृढ अनुमान के समान प्राप्तकर यथास्थिती, यथा-उदय साधने के लिए धर्मशाली युक्तियुक्त पुरुषों द्वारा कांक्षा नामक अतिचार से मुक्त दूषण रूपी सन्निपात का निषेध करने के लिए कहा गया है। इस प्रकार कांक्षा के करण-अकरण में राजा और अमात्य की कथा कही गयी। अब विजुगुप्सा के आख्यानक को कहते हैं - || दुर्गन्धा की कथा ।। शालिग्राम नामक एक सीमावर्ती देश था। वहाँ धनमित्र नामक श्रावक रहता था। उसकी पुत्री का नाम धनश्री था। एक बार उसके पाणिग्रहण महोत्सव के प्रवर्तित होने के समय कोई ताप से आर्त शान्त मूर्ति मुनि वहाँ आये। पिता द्वारा पुत्री से कहा गया - पुत्री! यह तेरा महोत्सव है। अतः सत्पात्रदान के द्वारा आज तुम पुण्यार्जन 311
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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