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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्प्रति राजा की कथा देखा। उस पत्र में लिखा था। इस गन्ध को सूंघकर जो शीतल जल को पीता है, सभी रस वाले भोज्य को खाने से सुधा को भी अधःकृत करेगा। कपूर, कुसुम आदि सुरभि गंध को सूंघता है। स्पृहापूर्वक मनोहर रूप को निरूपित करता है। बांस की वीणा से युक्त सुन्दर गीतों को सुनता है। विलासपूर्वक स्त्रियों के संग की लालसा वाला होता है। ज्यादा क्या कहा जाय! पाँचों इन्द्रियों के मनोरम विषयों में से जो एक-एक विषय को भी भोगता है, वह शीघ्र ही यमराज का मेहमान बनता है। पर जो मुण्डित सिर वाला होकर, प्रान्त आहार युक्त मलिन वस्त्र युक्त अस्नानी मुनि वृत्ति को धारण करता है, वह लम्बे समय तक जीता है। इस अर्थ पर विश्वास प्राप्त करने के लिए सुबन्धु ने किसी मनुष्य को वह गन्ध सुंघाकर सभी इन्द्रियों के सुख में नियोजित किया और वह मनुष्य मर गया। तब उसने विचार किया कि मेरी बुद्धि को धिक्कार है। बुद्धिमान तो एकमात्र चाणक्य ही था। जिसने मरकर भी मुझ जीवित को मृत बना दिया है। तब वह नट के समान भाव रहित मुनिवेष में स्थित हो गया। पर वह पापी अभवी होने से अनन्त भवों में भ्रमण करेगा। उधर बिन्दुसार राजा के राज्य को उज्ज्वल करता हुआ पृथ्वी के तिलक रूप एक पुत्र महादेवी रानी की कोख से उत्पन्न हुआ। छाया रहित, सुमनोरम्य, सदैव भ्रमरों को प्रियता प्राप्त वन श्री भाति अशोकश्री के कौतुक को सफल रूप से उदित करता हुआ उसका नाम अशोकश्री हुआ। बिना थके निरन्तर अध्ययन करते हुए उसमें नवयौवन अंगड़ाई लेने लगा। तब उस गुणवान को राजा ने युवराज पद पर अभिषिक्त किया। क्रमशः राजा के मृत्यु -प्राप्त होने पर राज्य धुरि को वहन करने में समर्थ होने के कारण उसी को सामन्त-सचिव आदि द्वारा राज्य के शासन पर स्थापित किया गया। उसके भी अत्यधिक पुण्यशाली पुत्र कुणाल उत्पन्न हुआ, जिसे उसकी माता के मर जाने से ही पिता द्वारा युवराज पद दे दिया गया। किसी भी माता द्वारा इसके साथ सौतेला व्यवहार न किया जाय, यह सोचकर राजा कुणाल पर पुत्र-वत्सल हुआ। चतुरंग सेना से युक्त प्रधान अमात्य के साथ कुमार के लिए भोजनसामग्री देकर उसे अवन्ती पुरी में भेज दिया। स्नेह के अतिशय के कारण राजा प्रतिदिन अपने हाथ से लिखित लेख आदरपूर्वक भेजा करता था। कुछ समय बाद कुमार को कलायोग्य जानकर मन्त्री को सन्देश लिखा कि "अधीयतान्नः पुत्रोऽयम्" अर्थात् हमारे पुत्र को पढ़ाया जाय। अक्षर सुखाने के लिए पत्र को समेटे बिना राजा उसे उसी स्थान पर छोड़कर देह चिन्ता निवारण के लिए चला गया। किसी रानी ने उस पत्र को देखकर सोचा कि किसके लिए राजेन्द्र के अत्यन्त सम्मान पूर्वक राजा स्वयं लेख लिखता है। तब उसे पढ़कर अपने पुत्र को राज्य मिले-इसी आकांक्षा से उस रानी ने अ के ऊपर बिंदु का आकार बनाकर अर्थात् 'अधीयताम्' को 'अंधीयताम्' बनाकर उसी प्रकार रख दिया। राजा ने भी आकर व्यग्र चित्त के कारण बिना पुनः पदे, पत्र को समेटकर अपनी मुद्रा लगाकर भेज दिया। कुमार ने भी पत्र प्राप्तकर उसे पढ़ने के लिए किसी व्यक्ति को दिया। वह व्यक्ति मन में ही पत्र पढ़कर मौन रूप से स्थित हो गया। कुमार ने कहा - जल्दी से पत्र क्यों नहीं पढ़ते हो। फिर भी जब उसने कुछ नहीं कहा, तब स्वयं पत्र लेकर पढ़ा। "मेरे पुत्र को अंधा बना देना" यह पढ़कर पत्र-वाहक को कहा - मौर्य वंश में होनेवाले राजा की आज्ञा किसी के द्वारा भी खण्डित नहीं होती। अतः लिखे अनुसार ही मैं करूँगा। मंत्री ने कहा - देव! पुनः एक बार पूछकर फिर कार्य करना चाहिए। पर कुमार ने कहा - विमर्शन से क्या? इस प्रकार कहकर सहसा ही तप्त लोहे की शलाका से मानो भवितव्यता के द्वारा ही कहा गया हो. इस प्रकार आँखों को आँज लिया। यह सनकर नप शीघ्र ही दःख के सागर में डब गया। उसने विचार किया - अहो! धिक्कार है भाग्य के नत्य को। यह दुर्गम्य है। हर्ष के लहरों से मूछित बने मानस द्वारा क्या सोचा जाता है और वही कार्यारम्भ विधि के वश से अन्यथा हो जाता है। जो भाग्य करता है, निश्चित ही वही होता है। यह करूँगा, यह नहीं - मनुष्यों की इस प्रकार की चिन्ता व्यर्थ है। तब राजा ने कुणाल को एक गाँव दे दिया, क्योंकि अन्धे को राज्य देना योग्य नहीं है। फिर उज्जयिनी 302
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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