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________________ सम्प्रति राजा की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् जायन्ते हि महियांसः प्रणिपातवशंवदाः । महान् व्यक्ति विनयी लोगों के वश में होने के लिए ही पैदा होते हैं। श्वसुर को तथा उनके दूसरे स्वजनों को चाणक्य ने ग्राम- देश आदि औचित्यानुसार दिया । एकबार दुर्गति के घर रूप शून्य कोश को देखा तो विचार किया कि तलवार के समान राज्य कोशहीन होने से नष्ट हो जायगा । अतः कोश को भरने के लिए चाणक्य ने कूट- पाशक करके अपने एक आदमी को रत्न भरा थाल सामने रख कर खेलने के लिए बिठाया । उसने कहा- जो मुझे जितेगा उसे रत्नथाल दिया जायगा । और जिसके द्वारा मैं जीत गया, तो वह मुझे एक दीनार देगा। लोभ से बहुत जनों ने उसके साथ खेला, पर पाशों को अपने वश में किये हुए होने से उसे कोई भी जीत नहीं पाया। चाणक्य ने जाना कि इस प्रकार कोश की पूर्ति में तो बहुत समय लगेगा। अतः कोश भरने के लिए शीघ्र ही दूसरा उपाय रचना होगा। जैसे सभी धनवान् कुटुम्बियों को मद्य पान करवाऊँ, जिससे नशे में वे सभी अपने-अपने घर की सारभूत बात कह देंगे। कहा भी है - - यतः क्रुद्धस्य रक्तस्य व्यसनापतितस्य च । मत्तस्य म्रियमाणस्य सद्भावः प्रकटो भवेत् ॥ क्रुद्ध, रागी, व्यसनी, मत्त व मरते हुए व्यक्ति के सत्य भाव प्रकट होते ही हैं। इस प्रकार निश्चित करके चाणक्य ने उन धनवान् कुटुम्बियों को बुलवाया। उन्हें मद्य से मदहोश बनाकर उनके मनोभाव जानने के लिए कहा- दो वस्त्र, रक्त धातु, त्रिदण्ड व स्वर्णकुण्डिका मेरे पास में है तथा राजा मेरे वश में हैं, मैं यहाँ होला को बजाता हूँ। तब चाणक्य का कहा हुआ सुनकर वे सभी कुटुम्बी गर्व से अपना-अपना एक-एक अनुष्टुभ कहने लगे। हजार योजन के मार्ग पर जाते हुए मत्त हाथी के पग-पग पर एक-एक लाख वित्त है, यहाँ मेरा होला बजाओ । एक आढक प्रमाण तिल को अच्छी प्रकार बोने से जो तिल उत्पन्न होते हैं उन तीलों में से एक-एक तिल पर एक-एक लाख रुपये रखने जितना धन मेरे पास है अतः मेरे नाम से होला बजाओ । प्रावृट् ऋतु के पूर से बहती हुई नदी का पालि-बन्धन कर सके इतने मक्खन की एक दिन में मेरे यहाँ उत्पत्ति होती है। अतः यहाँ मेरा होला बजाओ। मेरे पास ऐसे अश्व हैं जिनके एक दिन के जन्मे हुए बच्चे के केशों के अंशों से पूरा आकाश छादित हो जाये, यहाँ मेरा होला बजाओ । मेरे पास दो गर्दभी रत्न हैं जो ऐसे बीज को देती हैं जिसके बोने से उगने पर छेदन करने पर भी पुनः उगते हैं अतः मेरे नाम से होला बजाओ । मुझे कहीं प्रवास करना नहीं होता, मेरी पत्नी मेरे वश में है, हजारों द्रव्य का मैं मालिक हूँ, मैं शुक्ल वस्त्र धारण करता हूँ, और सुगंध अंगवाला हूँ, अतः मेरा होला बजाओ । इस प्रकार चाणक्य ने उनके भावों को जान लिया। फिर वे निर्मद होने पर उनसे यथोचित रीति से उस बुद्धिशाली ने बहुत सारा द्रव्य मांग लिया । हजार योजन गामी हाथी के एक-एक कदम पर एक लाख धन उससे लिया। एक तिल से जितने तिल उत्पन्न हुए उन एक-एक तिल पर एक लाख द्रव्य उससे लिया । एक दिन में उत्पन्न होनेवाले मक्खन का घृत महिने महिने देना । एक दिन में उत्पन्न होनेवाले अश्व महिने महिने देना । एक दिन में उत्पन्न होनेवाले शाली से महिने महिने कोष्ठागार भरना । इस प्रकार चाणक्य को उन्होंने दिया । इस प्रकार कोश समूहों से कोष्ठागार भर गये । चाणक्य कर्त्तव्य करके राज्य को राजा की तरह ही शासित करता था। 297
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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