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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्प्रति राजा की कथा भी घोड़े पर चढ़कर लौटकर पुनः मेष की तरह प्रहार करने के लिए एक दिशा में भागे। हमें कोई पहचान न ले - इस प्रकार घोड़े को भी पथ पर छोड़कर वे दोनों सरोवर की पाल के सहारे-सहारे पैदल ही चलने लगे एक घुड़सवार को पीछे-पीछे आता देखकर चाणक्य ने किनारे पर कपड़े धो रहे एक धोबी को कहा - अरे! रे! तुम भागो-भागो। नन्द महीपति का नाश हुआ। नन्द की सेना चन्द्रगुप्त के घुड़सवारों द्वारा पकड़ ली गयी है। यह सुनकर वह भाग गया। चाणक्य उसकी जगह कपड़े धोने लगा। चन्द्रगुप्त तो सरोवर के अन्दर पद्मिनी-वन में छिप गया। उस घुड़सवार ने रजक के वेश में रहे हुए चाणक्य से पूछा - क्या तुमने यहाँ से चन्द्रगुप्त व चाणक्य को जाते हुए देखा है? उसने कहा - चाणक्य को तो मैंने नहीं देखा। पर चन्द्रगुप्त यहाँ पभिनी-खण्ड में तापसे आक्रान्त हंस की तरह छिपकर बैठा हुआ है। उस घुड़सवार ने भी उसे देखकर कहा - क्षणभर मेरे घोड़े को पकड़ो। तब धोबी रूपी चाणक्य ने कहा - मैं इससे डरता हूँ। अतः तुम उसे पेड़ से बाँध दो। जल में प्रवेश करने के लिए मोचक के तलवार खोलने से पहले ही उसीकी तलवार से चाणक्य ने उसीको ही मार डाला। फिर चन्द्रगुप्त व चाणक्य दोनों ही उसके घोड़े पर सवार होकर भाग गये। कितनी ही दूर जाकर उस घोड़े को भी पहले की ही तरह रास्ते पर छोड़ दिया। चलते हुए चाणिक्य ने चंद्रगुप्त से पूछा - अरे! जब मैं घुड़सवार को शिक्षा कर रहा था, उस समय तुमने क्या विचार किया? चन्द्रगुप्त ने कहा-तात! उस समय मैंने सोचा कि आर्य द्वारा देखा गया मेरा साम्राज्य इस प्रकार का होगा। तब चाणक्य ने यह निश्चित किया कि यह मेरे विपरित कभी नहीं जायगा। जैसे - शिष्य गुरुवचन का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार यह भी कभी भी मेरे वचनों का उल्लंघन नहीं करेगा। कुछ समय बाद भूख लगने पर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को वन के मध्य छोड़कर अन्न के लिए किसी ग्राम में प्रवेश किया। उसने तिलक छापा से युक्त अंगवाले, पेट में नाक लगती हो, ऐसे मोटे पेट वाले एक विप्र को आते हुए देखकर उससे पूछा - भोजन कहीं मिलेगा? उसने कहा - बहुत सारा मिलेगा। एक यजमान के घर आज महोत्सव है। वह पूर्व में नहीं आये हुए ऐसे लोगों को विशेष रूप से दधि-मिश्रित लोट आदि देता है। तुम भी जाओ। मैं अभी वहीं से खाकर आ रहा हूँ। वहाँ पर प्रवेश करते हुए मुझे नन्द का कोई पुरुष पहचान न ले और उधर बाहर मेरे बिना चन्द्रगुप्त को कोई पकड़ न ले। उधर द्वार पर नन्द का कोई घुड़सवार आया हुआ था। चाणक्य ने सोचा - राज्य स्पृहा के कारण चोर की तरह बनकर लता की तरह इसको नष्ट करना पड़ेगा। इस प्रकार विचारकर सावधानी से दयारहित होकर छोटी सी कटार हाथ में लेकर चाणक्य ने पभकोश की तरह शीघ्र ही उसके पेट में स्थित थाली की तरह करम्बक को लेकर पत्तों के सम्पुट में ले जाकर चन्द्रगुप्त मौर्य को भोजन करवाया। पुनः दिन बीतने पर रात्रि सम्मुख आने पर किसी सन्निवेश में जाते हुए चाणक्य भिक्षार्थी होकर एक वृद्धा ग्वालिन के घर गया। उसी समय वह अपने बच्चों को एक थाली में अत्यन्त गर्म राबड़ी दे रही थी। उस गर्म राबड़ी के बीच में एक बच्चे ने अंगुली डाल दी। अंगुली जलजाने से वह रोने लगा। तब वृद्धा ने क्रोध करते हुए कहा - क्या चाणक्य की निर्बुद्धि तुम्हें भी प्राप्त हो गयी है? अपने नाम की आशंका से चाणक्य ने उससे पूछा - माता! वह चाणक्य कौन है, जिसकी उपमा आपने इस बच्चे को दी है। उसने कहा - कौन सा चाणक्य! चन्द्रगुप्त के साथ रहने वाला। और कौन सा! सबसे पहले पाटलिपुत्र को ग्रहण करने के लिए चला आया। वह मूर्ख नहीं जानता कि देश को पहले चारों ओर से जीता जाता है। उन पर जय प्राप्त करने के पश्चात् ही पत्तन भी जीत लिया जाता है। मेरे पुत्र ने भी उसी की तरह सबसे पहले अति उष्ण राबड़ी के बीच में हाथ डाला, पर किनारे से नहीं ली। इसीलिए उसका हाथ जल गया। तब बालादपि हितं ग्राह्यमिति नीतिः । बालक से भी हितकारी बात ग्रहण करनी चाहिए ऐसा नीति वाक्य है। 294
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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