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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् जानता हुआ भी वह नौ तत्त्वों पर की श्रद्धा से सम्यक्त्व प्राप्त करता है। यहाँ शंका होती है कि पूर्व में देवादिविषयक श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है और यहाँ जीवादि विषय रूप श्रद्धान को। अतः परस्पर विरोध आता है, तो इसका समाधान यह है कि यहाँ कोई पूर्वापर विरोध नहीं है, क्योंकि देवादि का जीवादि में अन्तर्भाव हो जाता है ।। ३६ ।। २४२ ।। मिथ्यात्व का त्याग करने पर ही सम्यक्त्व होता है और वह ज्ञात होने पर ही त्यागना शक्य है। अतः मिथ्यात्व के भेद से उसके स्वरूप को कहते हैं. - दुविहं लोइयमिच्छं देवगयं गुरुगयं मुणेयव्यं । लोउत्तरं पि दुविहं देवगयं गुरुगयं चेव ॥३७॥ ( २४३) लौकिक मिथ्यात्व देवगत तथा गुरुगत रूप से दो प्रकार का जानना चाहिए। लोकोत्तर मिथ्यात्व भी देवगत व गुरुगत दो प्रकार का होता है। जनमत के बाहर स्थित लोगों में लौकिक मिथ्यात्व दो प्रकार का है - देव गत और गुरुगत । देव तो बुद्ध आदि में देव बुद्धि रखकर उनकी पूजादि करना। गुरु शाक्य आदि में गुरु बुद्धि रखकर उन्हें प्रणाम करना । लोक से वर्णित स्वरूप से उत्तर ज्ञानादि गुणों द्वारा प्रधान भूत आर्हत हैं। उनमें भी होनेवाला मिथ्यात्व लोकोत्तर मिथ्यात्व है। वह भी दो प्रकार का है - देवगत तथा गुरुगत । देवगत तो वीतराग में भी उपयाचित [ वीतराग प्रभु के पास भौतिक याचना ] आदि के द्वारा राग आदि का आरोपण है। गुरुगत तो जो पार्श्वस्थ आदि हैं उनको गुरु बुद्धि से वंदन आदि करना है ।। ३७ ।। २२३ ।। - अब इनका परिहार करने पर जो फल होता है, उसे कहते हैं. चउभेयं मिच्छत्तं तिविहं तिविहेण जो वियज्जेड़ । सम्यक्त्व अकलंकं सम्मत्तं होय फुडं तस्स जीवस्स ॥३८॥ (२४४) जो मिथ्यात्व के इन चारों भेदों का तीन करण तीन योगों से त्याग करता है, उस जीव के निष्कलंक सम्यक्त्व प्रस्फुटित होता है ।। ३८ ।। २२४ || अब सम्यक्त्व को ही कर्मक्षय के मूल कारण रूप से कहने की इच्छा से व्यतिरेक दृष्टान्त को कहते हैं। कुणमाणो वि हु किरियं परिच्चयंतो वि सयणधणभोगे । दितो वि दुहस्सेउरं न जिणड़ अंधो पराणीयं ॥ ३९॥ (२४५) शस्त्र-प्रक्षेप आदि क्रिया को करता हुआ, स्वजन-धन- भोग आदि का त्याग करता हुआ युद्ध-रसिक पुरुष उर, शरीर की अपेक्षा दुःख देता हुआ भी अन्धा होने के कारण दूसरे सैन्य पर विजय प्राप्त नहीं करता है। भावार्थ तो इस कथानक से जानना चाहिए - वसन्तपुर नामक एक नगर था, जिसके चारों ओर विकस्वर वनों के द्वारा खिलने वाली शोभा राज्य की धरती को वसन्त की तरह शोभायमान बनाती थी । वहाँ जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था, जिसका प्रताप रूपी सूर्य वैरियों के लिए दुःसह तथा मित्रों के लिए सुसह था। राज्य रूपी लक्ष्मी के द्वय- कुण्डल की तरह उसके दो पुत्र हुए, जो इन्द्र - उपेन्द्र की तरह आम्ना व महिमा से अतिशायी थे । प्रथम पुत्र सूरसेन महान् शौर्य का निधान था। वह शब्दवेधी महायोद्धा था, पर नेत्र - विहिन था। छोटा पुत्र वीरसेन अत्यधिक वीर था । कमल के समान नयनों वाला था। विश्व के वीरों में सारभूतों के समान वीरता को धारण करता था, मानों समस्त वीर पुरुषों में सारभूत तत्त्व रूप ब्रह्मा का ही पर्यायवाची था । एकबार वह पुर चारों ओर से दुष्ट वैरियों द्वारा घेर लिया गया। मानो चन्दन के वृक्ष से सर्प लिपट गये हों। 284
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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