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________________ बकुश-कुशील चारित्री सम्यक्त्व प्रकरणम् अज्ज वि तयसुसियंगा तणुअकसाया जिइंदिया धीरा । दीसंति जए जइणो दम्महहिययं वियारंता ॥६६॥ (१८०) आज भी तप से शोषित अंगवाले, कषाय को कृश करने वाले, जितेन्द्रिय, धीर यति, हृदय पर प्रचण्ड संयम का कवच धारण करनेवालें महापुरुष विचरते हुए देखे जाते हैं।।६६।१८०॥ तथा - अज्ज वि दयसंपन्ना छज्जीवनिकायरक्खणुज्जुत्ता । दीसंति तयस्सिगणा विगहविरत्ता सुईजुत्ता ॥६७॥ (१८१) आज भी छः जीव निकाय की दया से संपन्न, छः जीव निकाय के रक्षण में युक्त, विगय अथवा विग्रह से रहित, स्वाध्याय से युक्त तपस्वी गण देखे जाते हैं।।६७।।१८१।। तथा - अज्ज वि दयवंतिपयट्ठियाइ तयनियमसीलकलियाई । विरलाई दूसमाए दीसंति सुसाहुरयणाई ॥६८॥ (१८२) आज भी दया, क्षमा आदि में प्रवृत्ति करनेवाले, तप-नियम-शील से युक्त विरले सुसाधु रूपी रत्न इस दुषम आरे में भी देखे जाते हैं।।६८।।१८२॥ इसलिए - इय जाणिऊण एवं मा दोसं दूसमाइ दाऊण । धम्मुज्जम पमुच्यह अज्ज वि धम्मो जए जयइ ॥६९॥ (१८३) दूषमादि आरे में दोष का त्याग नहीं है, फिर भी चारित्र का अस्तित्व है, यह जानकर धर्म में उद्यम करें। क्योंकि आज भी धर्म का यत्न यति करता ही है।। १८३|| इस तरह अनेक प्रकार से चारित्र के अस्तित्व की प्रतिष्ठा करके अब निर्गमन कहते हैंता तलियनियबलाणं सत्तीड जहागमं जयंताणं । संपुनच्चिय किरिया दुप्पसहंताण साहणं ॥७०॥ (१८४) पूर्व यतियों के समान अपने बल, सामर्थ्य आदि से यथागम यतना करते हुए पूर्व यतियों से थोड़ी भी न्यून नहीं हो, ऐसी क्रिया दुप्पसह आचार्य तक होती है।।७०।।१८४।। इस प्रकार चारित्रियों की व्यवस्था करके साम्यता से विशुद्ध उसी के ही चित्त को नमस्कार करते हैं - लाहालाह-सुहासुह-जीवियमरण-ठिइपयाणेसु । हरिसविसाय विमुक्कं नमामि चित्तं चरित्तीणं ॥७१॥ (१८५) लाभ-अलाभ, शुभ-अशुभ, जीवन-मरण, स्थित-प्रयाण, हर्ष-विषाद से विमुक्त चारित्रयुक्त आत्माओं के चित्त को प्रणाम शिष्य को समता का उपदेश देते हैं - वंदितो हरिसं निंदिज्जतो करिज न विसायं । न हु नमिय निंदियाणं सुगई कुगइं च बिंति जिणा ॥७२॥ (१८६) खुद को वंदन किये जाने पर हर्षित न होवे तथा निंदा किये जाने पर विषाद को प्राप्त न होवे, क्योंकि जिनेश्वर ने कहा है कि वंदे जाने पर सुगति नहीं होती और निंदा किये जाने पर दुति नहीं होती।।७२।।१८६।। उस प्रकार के साम्य का पात्र साधु जीव रूप से तुल्य होने पर भी तप आदि गुणों से वंदनीय होता है। इसकी 261
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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