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________________ चण्डरुद्राचार्य की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् अथवा ज्यादा अनुष्ठानों को देखकर वे शुद्ध क्रिया में रत आचार्य साधुओं पर अत्यन्त रोष करते थे। उन यतनाशाली सुसाधुओं के प्रमाद की बहुलता से थोड़ा सा भी दोष तो लग ही जाता था । तब गुरु चित्त में विचार करते थे कि थोड़ासा अपराध होने पर भी मैं क्रोध करता हूँ, इसलिए संक्लेश से मैं कर्मबन्ध कर लेता हूँ। स्मारण, वारण आदि द्वारा मैं जो भी शुभ कर्म अर्जित करता हूँ। उससे अनेक गुणा शुभकर्म मैं संक्लेश रूपी अग्नि में जला देता हूँ। तब मेरी इस क्रिया द्वारा लाभ से हानि अधिक हो जाती है। इस अनात्मनी रूप में मैं क्या करूँ? इस प्रकार विचार करके भव से उद्विग्न होकर वे अपने हित के लिए सदैव वहीं रहते थे जहाँ से उन्हें अन्य साधु दृष्टिगोचर न हो । नित्य ही एकाग्र मन द्वारा एकान्त में स्वाध्याय करते हुए मन्त्र जाप आदि के द्वारा भाववैरी क्रोध कषाय के प्रति अभिचार यानि उसका मारण करने का कार्य लगातार करते थे । अर्थात् क्रोध से मुक्त होने का उपाय करते थे । एक बार नव-विवाहित प्रौढ़ यौवन वाला इभ्यपुत्र श्रृंगार रूपी पथ्य विभूषित होकर मित्रों से घिरा हुआ वहाँ आया। उन सुसाधुओं के पास आकर उपहास पूर्वक प्रणिपात करके कहा कि हमें धर्म कहें। यह निश्चय ही क्रीड़ा करने वाला हैं - यह सोचकर उन साधुओं ने कुछ नहीं कहा। उनके वचनों को सुना ही न हो इस प्रकार स्वाध्याय में निरत हो गये । उस इभ्य पुत्र ने पुनः माया पूर्वक अंजलि करके कहा- हे उत्तम मुनि! मुझे दीक्षा दें। संसार पार उतारें। प्रसन्न होवें । उसके मित्रों ने भी कहा- हाँ! प्रभु ! दुर्भाग्य के दोष से पत्नी द्वारा भी यह परित्यक्त है, अतः दीक्षा के लिए यह योग्य है। मुनियों ने विचार किया कि ये दुष्ट उच्छृंखल हमें ठग रहे हैं। अतः इनकी औषधि हमारे गुरु के बिना अन्य कोई नहीं है। इस प्रकार विचारकर उन साधुओं ने उन्हें गुरु को दिखाया। एवं कहा कि हम सभी को दीक्षा देने वाले ये गुरु हैं। हमारे आदेश दाता है, अतः तुम इन्हीं के पास चले जाओ । वहाँ जाकर भी क्रीड़ा पूर्वक उन कौतूहलियों ने क्षण भर का नाटक खेलने के लिए दुष्टतापूर्वक वही सब कहा । बिचारे कूपमण्डूक बालक यह नहीं जानते थे कि - मरिचानि न शक्यन्ते चर्वितुं चणकानिव । मिर्च को चने की तरह नहीं चबाया जा सकता। उनके कथन से उन्हें उत्पाती जानकर गुरु चण्डरुद्राचार्य ने कुपित होकर कहा राख लेकर आओ। जिससे अभी शीघ्र ही मैं इसे दीक्षित कर सकूँ । उनमें से एक मित्र कहीं से भी राख लेकर आया । वह इभ्य पुत्र मुनि के आगे बैठ गया। गुरु ने उसी समय पंच नमस्कार का उच्चारण करके उसके भावी श्रेयस् को कहने के समान केश - लुंचन प्रारम्भ किया। तब उसके सभी मित्रो ने विषादग्रस्त होते हुए कहा - भूल जाओ! भूल जाओ मित्र ! शीघ्र ही सत्यता को प्राप्त होओ। हंसो मत । भवितव्यता से उसने भी लघुकर्मी होने से आसन्न - सिद्धिक होने से उत्पन्नवैराग्य द्वारा विचार किया। अपने वचन द्वारा ही केशों का लोच कराकर मैंने व्रत स्वीकार किया है। अतः इसका त्यागकर मैं अब अपने घर कैसे जाऊँ? क्रीड़ा द्वारा प्राप्त व्रत वाला होने पर भी वह भाव साधु बन गया। उसके मित्र भी अधीर होकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से लौट गये । उस नवदीक्षित ने व्रत में उत्पन्न भावना वाला होकर गुरु से कहा - भगवन्! हम अभी ही शीघ्रतापूर्वक अन्यत्र चले जायेंगे। अन्यथा मेरे माता-पिता तथा मेरी नवोढ़ा पत्नी, मेरे श्वसुर तथा राजा आदि मेरा व्रत छुड़वा देंगे। मेरे स्वजन पूज्य सुसाधुओं से अनजान हैं। वे दुराशय पूर्वक बहुत अनर्थ कर सकते हैं। हे पूज्य ! आप व मैं यहाँ से चले जायेंगे। अन्यथा सपरिवार आपके जाने से तो वे सब कुछ जान जायेंगे। आप और मैं ही जायेंगे तो किसी को मालुम नहीं होगा। तब गुरु ने उससे कहा - पथ की प्रतिलेखना करो जिससे घोर अन्धकार होने पर भी सुगमतापूर्वक पथ पर चला जा सके। वह भी गुरु के आदेश के वशीभूत होकर शीघ्र ही जाकर कितने ही पथ की प्रतिलेखना करके लौट आया। तब गुरु व शिष्य दोनों ही रात्रि में निकल पड़े। आगे-आगे शिष्य तथा पीछे-पीछे गुरु चलने लगे। चण्डरुद्र गुरु रात्रि में बिना देखे शब्द बेधी बाण की तरह शिष्य के जाने 259 -
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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