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________________ बकुरा - कुशील चारित्री सम्यक्त्व प्रकरणम् जो भणइ नत्थि धम्मो न य सामइयं न चेय य वयाई । सो समणसंघबज्झो कायव्यो समण संघेण ॥५६॥ ( १७० ) जो कहता है कि धर्म नहीं है, सामयिक नहीं है। व्रत भी नहीं है। उसे श्रमण संघ द्वारा श्रमण संघ से बाहर कर देना चाहिए । । ५६ ।। १७० ॥ उसे बाहर क्यों करना चाहिए? इसका कारण यह है - दुप्पसहंतं चरणं जं भणियं भगवया इह खेत्ते । आणाजुत्ताणमिणं न होइ अहुणत्ति या मोहो ॥५७॥ (१७१) दुप्पसह आचार्य पर्यन्त आज्ञायुक्त साधुओं का चारित्र जिस कारण से भगवान द्वारा इस भरत क्षेत्र में कहा गया है, उस कारण से मति से व्यामोहित मूढ़ उसका स्वीकार न करने से उन्हें संघ बाहर कर देना चाहिए ।।५७||१७१ ।। यहाँ शंका होती है कि उस प्रकार के बुद्धि-बल आदि का अभाव होने से वैसा चारित्र संभव कैसे हो सकता है ? इसका समाधान करते हुए कहा है - कालोचियजयणाए मच्छररहियाण उज्जमंताणं । जणजत्तारहियाणं होड़ जड़त्तं जईण सया ॥५८॥ (१७२) कालोचित यतना से युक्त, मत्सर भाव रहित होकर उद्यम करते हुए, जनयात्रा से रहित अर्थात् कृत- प्रतिकृत सुख, दुःख, चिन्ता आदि लोक व्यवहार से मुक्त विजयी जिनेश्वर देव के उपासक जब तक तीर्थ होता है, तब तक रहते ही हैं ।। ५८ ।। १७२ ।। इसी का समर्थन करते हुए आगे कहा है - - न विणा तित्थ नियंठेहिं ना तित्था य नियंतया । छक्कायसंजमो जाव ताय अणुसज्जणा दुण्हं ॥५९॥ (१७३) सामान्य रूप से चारित्र युक्त निर्ग्रथों के बिना तीर्थ नहीं होता और तीर्थ के बिना निर्ग्रन्थ भी नहीं होते। अतः जब तक छः काय का संयम है, तब तक बकुश व प्रतिसेवना कुशील की पालना होती ही है। पुलाक, बकुश तथा प्रतिसेवना कुशीलों का यह नियम है, जो कि प्रज्ञप्ति ( भगवती ) में है । जैसे - पुलाएणं भंते! किं तित्थे हुज्जा - अतित्थे हुज्जा ! गोयमा ! तित्थे हुज्जा, नो अतित्थे हुज्जा । एवे बउसे वि पडिसेवणाकुसीले वि। कसाय कुसीले पुच्छा, गोयमा ! तित्थे वा हुज्जा अतित्थे वा हुज्जा । जइ अतित्थे हुज्जा, तित्थयरे हुज्जा, पत्तेयबुद्धे हुज्जा ? गोमा ! तित्थयरे वा हुज्जा, पत्तेयबुद्धे वा हुज्जा एवं नियंठे वि । एवं सियाणे वि । हे भगवन्! पुलाक क्या तीर्थ में होता या अतीर्थ में होता है ? हे गौतम! तीर्थ में होता है, अतीर्थ में नहीं होता। इसी प्रकार बकुश व प्रतिसेवना का भी समझना चाहिए । कषाय कुशील की पृच्छा में हे गौतम! तीर्थ में भी होता है और अतीर्थ में भी होता है । भगवन्! अगर अतीर्थ में होता है, तो क्या तीर्थंकर को होता है या प्रत्येकबुद्ध को होता है? हे गौतम! तीर्थंकर को भी होता है, प्रत्येकबुद्ध को भी होता है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थ व स्नातक को भी जानना चाहिए ।। ५९ ।। १७३ ।। अतः जब तक छः काय के जीवों का संयम है, तब तक बकुश व प्रतिसेवना कुशील की पालना है। अब उत्तरार्ध का वर्णन करते हुए कहते हैं - 257
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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