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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् केशी गणधर प्रदेशी राजा की कथा लिए चल पड़े। व्यापारियों के सम्पूर्ण मोह-मात्सर्य आदि मुख्यताओं का त्याग करवाकर वैराग्य, विवेक, प्रशम आदि की स्थापना की। सभी जगह सभी लोगों के आभ्यन्तर तमस को अपूर्व सूर्य की तरह हरण करते हुए वे श्वेतवी नगरी पधारें। मन्त्री ने पूर्व में ही उद्यान-पालक को कह दिया था कि कोई भी श्वेतवस्त्र धारी, मुख व सिर पर लुंचन किये हुए, दण्ड-कम्बल धारण करनेवाले मुनि उद्यान में पधारें, तो उन्हें स्थान देकर मुझे शीघ्र समाचार देना। उस समय उन मुनियों को आये हुए देखकर उनको योग्य स्थान पर बैठाकर उनके आगमन की बधाई उद्यानपालक ने मन्त्री को दी। गुरु के आगमन को सुनकर, बादलों के आने पर मयूर की तरह हर्ष के पूर से उत्कंठित चित्र मंत्री ने उसी स्थान पर रहते हुए वहीं से भक्तिभाव युत्त, वन्दना की, पर राजा की डर से वंदना करने के लिए उद्यान में नहीं गया। उसने विचार किया कि राजा प्रतिबुद्ध हो जाये, तो मुनि निराशंक यहाँ ठहर सकेंगे। तब किसी उपाय द्वारा अश्वभ्रमण के बहाने से गुरु के उद्यान के समीप की बाहरी पंक्ति की तरफ मंत्री राजा को ले आया। अश्व सवारी द्वारा क्लान्त राजा को मन्त्री विश्राम के लिए उसी उद्यान में ले गया। पसीने से तर-बतर राजा विश्राम के लिए छाया में बैठ गया। छाया में मानो राजा को अमृत का सिंचन प्राप्त हो रहा था। तभी राजा ने मधुर गम्भीर ध्वनि सुनकर मंत्री से कहा - मंत्रीवर! क्या यहाँ कोई हाथी बंधा हुआ है? मन्त्री ने कहा - स्वामी! मैं नहीं जानता। पर पाँवों के निशान से निश्चय करता हूँ। देखिये! आगे-आगे यह उद्यान कितना रमणीय है। ये दर्शनी कौन है - इस प्रकार कौतुक से देखने के लिए आगे आये। उस समय अपने ज्ञान से राजा के आगमन को जानकर अपने लोगों को सभासदों की तरह बैठाकर वे बुद्धि निधान गुरु गंभीर वाणी की गर्जना द्वारा खड़े होकर व्याख्यान दे रहे थे। आगे चलते हुए राजा ने उन मुनीश्वर को देखकर महामात्य से पूछा - यह मुण्डा क्या रट रहा है? यह यहाँ कब आया? पाखण्डी देखते हुए हरण करनेवाला चोर है। अभी शीघ्र ही इसे यहाँ से निकालो। हमारे देश को भी यह अन्य देशों की तरह न ठग ले, क्योंकि हे मन्त्री! अंगुली पकड़ाने पर ये हाथ ही पकड़ लेते हैं। राजा की आज्ञा से मन्त्री कुछ कदम चला, पर फिर लौटकर उसने राजा से कहा - देव! इस प्रकार इसे निकाले जाने पर यह मुनि अपने देश में जाकर अपने लोगों को थोड़ी नाक सिकोड़ कर कहेगा - जानता हूँ प्रदेशी राजा को। वह निर्गुण पुंगव मूर्ख शेखर की तरह गुणियों का नाश करने के लिए अर्धचन्द्राकार हाथ की स्थापना गले में करता है। अतः हे देव! इसे वाद में जीतकर निकाल देते हैं। युद्ध में पलायित की तरह दर्प के खण्डित होने से यह स्वयं चला जायगा। हे देव! आपके साथ तो बृहस्पति भी बोलने में समर्थ नहीं है। ब्रह्मा भी आशंकित होते हैं, तो यह आपके सामने कौन होता है? तब राजा ने स्वयं जाकर आचार्य से कहा - तुम कब आये? उन्होंने कहा - अभी ही आया हूँ। अमात्य भी गरु को खड़ा देखकर बहत मद्रित हआ। अहो! गरु के ज्ञान का पट्टबन्ध किया जा रहा है। राजा के आने पर उठना गरु की लाघवता होगी और न उठने पर शायद राजा का क्रोध बढ जाय। अतः राजा के आने से पहले ही खडे होकर गुरु स्थित हैं अथवा इनके दिव्य अतीन्द्रिय शाली ज्ञान की क्या बात है? तब मन्त्री ने राजा से कहा - स्वामी! आसन पर बिराजिये। ये मुनीन्द्र भी बैठ जाय फिर आप दोनों में श्रेष्ठ वाद-विवाद हो जाय। गोष्ठी को करने की लालसा से दोनों ने आसन ग्रहण किया। सार-असार विचार को जाननेवाले वे युक्त को क्यो नहीं मानेंगे। कहा भी को हि युक्तं न मन्यते ? सार असार को जानने वाले युक्त बात क्यों नहीं मानेगा? राजा ने कहा - हे आचार्य! तुम्हारी चूर्त विद्या स्पष्ट ही है, क्योंकि तुम्हें आये ज्यादा समय नहीं हुआ, तो भी इतने लोगों को मोहित कर लिया। हे आचार्य तुम्हारे इस राजपुत्र से प्रतीत होने वाले रूप से क्या! तुमने 250
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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