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________________ आर्यखपुटाचार्य की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् नर्मदा भी सदा उसके पास में रहती थी, जो अपनी तरंगो द्वारा हाथी की सूंड की भ्रमणा का वर्णन करती थी। विद्यासिद्ध, बहुश्रुत, बहुत सारे शिष्य परिवार से युक्त आर्यखपुट आचार्य विहार करते हुए एक बार वहाँ पधारें। उनका एक क्षुल्लक, जो कि उनका भाणेज था, बहुत ही कुशाग्र बुद्धिवाला था। गुरु के पास में रहकर उनकी शुश्रूषा से आत्मा को पावन करते हुए गुरु के पास से कर्णाघात विद्या ग्रहणकर विद्यासिद्ध आचार्य के प्रभाव से वह भी विद्यासिद्ध हो गया। किसी दिन कोई साधु-सिंघाड़ा वहाँ आया। गुरु चरणों को नमस्कार करके उन्हें बताया - गुडपिण्ड से प्रहार करके पर-बल को भग्न करने के कारण तब से ही विख्यात वह गुडशस्त्र नामक नगर है। पाताल-विवर में प्रवेश करके नाग-स्त्री की वेणी ग्रहण कर लेने के कारण वेणीवत्सराज नाम से ख्यात, वहाँ का राजा है। वहाँ पूर्व में आया हुआ कोई परिव्राजक जो अभिमान का पर्वत था। वह वाचाल अपनी प्रज्ञा से वागीशजनों (बुद्धिवानों) को भी अपना शिष्य बना लेता था। एक बार साधुओं द्वारा पराजित होकर नागरिकों द्वारा हीलना को प्राप्त वह अपमानित होने से साधुओं के प्रति अत्यन्त द्वेष भाव रखता हुआ मर गया। उसी नगर में वह बटुकर नामक व्यन्तर हुआ। विभंग ज्ञान से अपने पराभव का कारण साधुओं को जानकर आकाश में स्थित होकर वह विकराल-आत्मा पटह के समान गर्जना करते हुए लाल-लाल आँखो से, क्रोधित होकर काँपते हुए वह क्रुधी साधुओं को बोला - हे श्वेतवस्त्र धारियों! हे पापियों! तब वाद में मुझे जीत लिया था, अब उस वैर का बदला तुम्हें रुला-रुलाकर समाप्त करते हुए लूँगा। चाहे तुम पाताल में प्रवेश कर जाओ या स्वर्ग के परे चले जाओ। उस अपमान को याद करते हुए मैं तुम्हे नहीं छोडूंगा। यह कहकर वह गायब हो गया। तब उसके भय से हे प्रभु! उत्तम मुनि वहाँ रहने में समर्थ नहीं है। अतः वह मिथ्यादृष्टि देव वहाँ अर्हत् शासन की हीलना कर रहा है। मैं क्या कहूँ? साधुओं को तो वह भिखारी बोलता है। नागरिक लोग उस व्यन्तर के आयतन में उत्सव करते हैं। वहाँ आयतन में याचना की पर्ति होने से प्रभावित लोग विस्मयपूर्वक उसकी पूजा करते हैं। यह सुनकर खपुट आचार्य गच्छ छोड़कर अपने भानजे को वहीं छोड़कर स्वयं अल्प यतियों के साथ सायंकाल गडशस्त्रपर में गये। नगर के मध्य रहे हए उपाश्रय में साधओं को जाने का आदेश देकर गुरुदेव स्वयं बटुकर (नामक यक्ष) के आयतन में गये। जूतियों को गुरुदेव ने यक्ष के कानों का आभूषण बनाकर वस्त्र से अपने सर्वांग को ढंककर उसके सामने सोने का उपक्रम किया। प्रातःकाल देव की पूजा करने आये हुए लोगों ने यक्ष के कानों पर लटकती हुई जूतियों तथा उसके सामने गुरु को सोये हुए देखकर कोप पूर्वक विचार किया - अहो! यह कोई अनार्य प्रतीत होता है? पर यक्ष के द्वारा उपेक्षित कैसे? अथवा - भवन्ति बलिनो देवानामपि दानवाः । देव से भी दानव अधिक बली होते है। तब वह सार वृत्त लोगों ने महाराजा को कहा, राजा भी नागरिकों के साथ कौतुक से वहाँ आ गया। जैसा लोगों ने कहा, वैसा ही अविसंवादी दृश्य देखकर राजा ने उसे आवाज दी - यह निःशंकों का पुंगव कौन है? आवाज करने पर भी वह न तो उठे, न ही जवाब दिया। क्योंकि - सुप्तो जागर्यते जाग्रत् सुप्तस्तूत्थाप्यते कथम्? सोया हुआ व्यक्ति तो जगाया जाता है, पर जो सोया ही न हो, वह कैसे जगाये? उसे उठाने के लिए लोगों द्वारा उघाड़े जाने पर भी वे गुरु उससे भी नीचे स्थान पर चले गये, जिससे दूसरा कोई देख न सके। तब यह कोई भय का स्थान है - इस प्रकार विचारकर राजा को छोड़कर बाकी सभी जन उस पर प्रहार करने लगे। लोगों द्वारा लकड़ी आदि से प्रहार किये जाने पर गुरु ने विद्या द्वारा वह प्रहार राजा के अन्तःपुर 245
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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