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________________ शीलांग रथ का वर्णन सम्यक्त्व प्रकरणम् अट्ठारह हजार की शीलांग रथ धारा जिनेश्वर के द्वारा प्रज्ञस है। जो उसे सम्यक् प्रकार से धारण करता है, उसमें गुरु-बुद्धि करनी चाहिए। यहाँ शील का मतलब विधि-निषेध रूप चारित्र से है। उसके अंश-अंग अट्ठारह हजार कहलाते हैं। उसकी निष्पत्ति इस प्रकार है करणे जोगे सन्ना इंदिय भोमाइ समणधम्मे य । सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स निप्फत्ती ॥१॥ करण, योग, संज्ञा, इन्द्रिय, पृथ्वी आदि दस एवं धर्म आदि दस इनको परस्पर गुणने से ये अट्ठारह हजार प्रकार के शीलांग होते हैं। करण - करना, कराना तथा अनुमोदन रूप से तीन प्रकार का है। योग- मन, वचन तथा काया रूप से तीन प्रकार का है। संज्ञा - आहार, भय, मैथन व परिग्रह रूप से चार प्रकार की है। इन्द्रियाँ - श्रोतेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय रूप से पाँच प्रकार की है। भूमि आदि - पृथ्वी, अप, तेउ, वायु, वनस्पति, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तथा अजीवरूप - ये दस पद हैं। श्रमण धर्म - क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य रूप से दस प्रकार का है। ___इन सब के द्वारा अट्ठारह हजार शीलांग की निष्पति होती है। जैसे - आहार संज्ञा से संवृत्त, श्रोत्रेन्द्रिय के संवर द्वारा शान्ति संपन्न होकर पृथ्वीकाय के जीवों का मन से हनन नहीं करता। यह एक शीलांग हुआ। इसी प्रकार मार्दव आदि पद के योग से पृथ्वीकाय के कथन द्वारा दस शीलांग रूप विकल्प हुए। इसी प्रकार अप्काय आदि के कथन द्वारा दस-दस कहते हुए सौ विकल्प होते हैं। यह श्रोत्रेन्द्रिय से बनें। इसी प्रकार चक्षु आदि पाँचों इन्द्रियों के पाँचसो, आहारादि चार प्रकार की संज्ञा द्वारा कहे जाने पर दो हजार विकल्प होते हैं। ये दो हजार विकल्प मन, वचन, काया रूप तीन प्रकार से कहे जाने पर छः हजार विकल्प होते हैं। ये छः हजार विकल्प स्वयं करना, दूसरों से करवाना तथा करते हुए का अनुमोदन न करने रूप से अट्ठारह हजार विकल्प प्राप्त होते हैं।।२६।।१४०।। इसलिए ऊणत्तं न कयाइ वि इमाण संखं इमं तु अहगिच्च । __जं एयधरा सुत्ते निद्दिट्ठा वंदणिज्जाउ ॥२७॥ (१४१) इन अट्ठारह हजार की संख्या को अधिकार करके कदाचिद् भी दुःषम आदि काल में भी एक आदि गुण से भी हीन नहीं होना चाहिए। जो सूत्र रूप प्रतिक्रमण में अठारह हजार शीलांग कहे गये हैं, उन्हें धारण करने वाले यति को ही वंदन करना चाहिए।।२७।।१४१।। इस प्रकार अर्थ कह दिया गया है। अब कुछ विशिष्ट अर्थ को कहते हैं - पंचविहायाररओ अट्ठारसहस्सगुणगणोवेओ । एस गुरु मह सुन्दर भणिओ कम्मट्ठमहणेहिं ॥२८॥ (१४२) · अट्ठारह हजार शीलांग गुणों के समूह से युक्त, ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप, वीर्य रूपी आचार में रत, अष्टकर्म की अल्पता से युक्त ऐसे सुन्दर मेरे गुरु कहे गये हैं।।२८।१४२।। इस प्रकार साधु के स्वरूप को कहकर अब ३६ गुणों के द्वारा आचार्य के गुणों का वर्णन करने के लिए 239
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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