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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् माया पिण्ड की कथा (६) किसी व्यक्ति की प्रिया रुठ गयी। तब उसने हा दैव! अब मेरा क्या होगा? इस प्रकार बोलते हुए मनुष्य को देखकर लोग उसे हादेव कहने लगे। तब गोष्ठी में रहे हुए सभी मनुष्य जोर-जोर से हंसते हुए कहने लगे - बहुत अच्छा! हे क्षुल्लक! तुम्हारे द्वारा वे छहों भी जान लिये। यह भी वैसा ही है। तब देवदत्त ने क्षुल्लक का हाथ पकड़कर कहा - मुझसे मत छिपाओ। तुम्हें जो इच्छित है, वह दूँगा। क्षुल्लक ने भी कहा - देने के भय से शंकित नहीं हूँ। पर तुम्हारे घर में व्याघ्री की तरह भयंकरा अनार्या पत्नी है। देवदत्त ने कहा - ज्यादा क्या कहूँ। तुम मेरे साथ घर तो आओ। तब वे दोनों घर के द्वार तक आये। क्षुल्लक ने पुनः उससे कहा - तुम्हारी पत्नी मुझे नहीं देगी। मैं पहले भी तुम्हारे घर जाकर आया हूँ। अतः उसे जानता हूँ। अतः मैं एक क्षण यही ठहरता हूँ। तुम अन्दर जाकर अपनी पत्नी को किसी भी छल से माल पर चढ़ाकर वहाँ से श्रेणी हटा लेना, फिर मुझे बुलाना। देवदत्त ने अन्दर जाकर पत्नी से क्रोध पूर्वक कहा - तुमने अभी तक माल से आसन क्यों नहीं उतारा। वह तुरन्त सीढ़ी लगाकर माल पर चढ़ी, तभी उसने सीदी वहाँ से हटा ली। फिर उसने क्षुल्लक को यथेच्छित देने के लिए बुलाया। क्षुल्लक ने भी प्रवेश करके जोर से धर्मलाभ कहा। यह सुनकर उसकी पत्नी जैसे ही आने लगी, तो उसने देखा कि वहाँ तो सीढ़ी ही नहीं थी। वहीं पर रहते हुए उसने क्रोधावेग से काँपते हुए शरीर द्वारा पति को कहा - अरे! अरे! इस दुर्मख को शीघ्र ही निकालो। देवदत्त ने उस क्षुल्लक को वह घी तथा खाण्ड मिश्रित सेव का भोजन यथेप्सित दिया, तथा क्षुल्लक ने भी उस की पत्नी की आँखों के सामने रहते हुए ही ग्रहण किया। उसे देखते हुए उस क्षुल्लक ने अपनी तर्जनी नाक पर रगड़ते हुए धृष्टतापूर्वक कहा - मैंने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की। तब उसने उपाश्रय में जाकर सेवाखण्ड - घत आदि से अपने मान रूपी महाधन के द्वारा क्षुल्लकों को भोजन करवाया। पर मान से विवर्जित मुनियों को यह मान पिण्ड कल्पनीय नहीं है। कदाचित् रोष की अधिकता से वह स्त्री झंपापात भी करके मर जाती। अतः मुनि अवद्य पिण्ड ही ग्रहण करे। इस तरह मानपिण्ड का उदाहरण कहा गया। अब मायापिण्ड के उदाहरण को कहा जाता है - करोड़ों ध्वजों के समूह द्वारा सूर्य के ताप को तिरोभूत करने से जहाँ मनुष्यों को संताप उत्पन्न नहीं होता ऐसा राजग्रह नामक नगर था। रोहण पर्वत पर रत्न के समान वहाँ किसी गच्छ में धर्मरुचि गुरु के शिष्य आषाढ़ाभूति हुए। जो वचन लब्धि से सरस्वती के समान, रूप से कामदेव के समान, प्रज्ञा से बृहस्पति के समान, विज्ञान से विश्वकर्मा के समान थे। ज्यादा क्या कहा जाय? उस प्रकार के कर्मों के क्षयोपशम से विज्ञान, वेष, भाषा आदि द्वारा वह सब क्या नहीं था? जो उन मुनि में न हो। एक बार वे विचरते हुए श्रेष्ठ नट के आवास को प्राप्त हुए। वहाँ मन को प्रमुदित करनेवाला आमोद सहित मोदक प्राप्त हुआ। उस घर से निकलते हुए रस की लोलुपता से मुनि ने विचार किया कि यह मोदक तो गुरुदेव के लिए ही होगा, पुनः मुझे नहीं मिलेगा। तब मायाप्रपञ्च को जाननेवाले उन मुनि ने देव के समान रूप धारण करके पुनः उस घर में जाकर एक और मोदक प्राप्त किया। द्वार के बाहर आकर पुनः विचार किया कि यह उपाध्याय को प्राप्त होगा। तब कबड़े के वेष में अन्दर जाकर पुनः मोदक प्राप्त किया। पनः बाहर जाकर विचार किया कि यह तो क्षल्लक मनि को दे दूँगा। तब वद्ध का रूप बनाकर पनः मोदक ग्रहण किया। उन मुनि की इन लीलाओं को गवाक्ष में स्थित नट ने देखकर सोचा - निश्चय ही ये मुनि वैक्रिय लब्धि से युक्त है। यह किसी भी तरह नट बन जाये तो निश्चय ही मनुष्यों के आने के साथ-साथ देवता भी हमें अपना धन भेंट करेंगे। अतः उन्हें शीघ्र ही अपनी ओर मोड़ने के लिए नट ने विचार किया कि - महान्तोऽपि बध्यन्ते लोभपाशकैः । महान व्यक्ति भी लोभ पाश द्वारा बाँधे जा सकते हैं। 228
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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