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________________ शुद्ध श्रावक और सुपात्र-अपात्र दान की व्याख्या सम्यक्त्व प्रकरणम् संविज्ञपाक्षिक का यह लक्षण, गणधरादि ने संक्षेप में इस प्रकार बताया है कि जिससे शिथिलाचारी प्रमादी बनने पर भी कर्ममल को दूर करता रहे। संविज्ञ पाक्षिक निर्दोष साधु धर्म का प्ररूपक, स्वयं के शिथिलाचार का निंदक, अपने आपको सदाचारियों से लघु मानने वाला और स्वयं सुसाधु को वंदन करता है परंतु उनसे वंदन करवाता नहीं है। उनकी सेवा करता है उनसे अपनी सेवा करवाता नहीं। स्वयं अपने शिष्य बनाता नहीं है, प्रतिबोधितकर सुसाधुओं को सुपर्द करता है। (उपदेशमाला ५१४-१६) ।।३८।।१०६।। अब कैसे सुयति आदि में मोक्षमार्ग होता हैं, दूसरे में नहीं। इसे कहते है - सम्मत्तनाणचरणा मग्गो मुक्खस्स जिणवरुदिट्ठो । विवरीओ उम्मग्गो नायव्यो बुद्धिमंतेहिं ॥३९॥ (१०७) मोक्ष का मार्ग जिनवर द्वारा उपदिष्ट सम्यग् ज्ञान व सम्यग् चारित्र है और वह सुयतियों में ही होता है, गृहीलिंग आदि में नहीं। उसके विपरीत उन्मार्ग होता है - यह बुद्धिमानों द्वारा जानना चाहिए।।३९।।१०७।। अब ज्ञानादि के स्वरूप को कहते हैं - सन्नाणं वत्थुगओ बोहो सदसणं च तत्तरूई । सच्चरणमणुट्ठाणं विहिपडिसेहाणुगं तत्थ ॥४०॥ (१०८) सदज्ञान-वस्तु में जीव-अजीव आदि तत्त्व हैं उसमें रहा हआ ज्ञान तदगत बोध है। सददर्शन सम्यक्त्व है और वह तत्त्व रुचि अर्थात् तत्त्व की अभिलाषा है। उपादेय में विधि और हेय में प्रतिषेध-रूप से रहा हुआ अनुष्ठान अर्थात् क्रिया कलाप सच्चारित्र है॥४०॥१०८॥ सच्चारित्र का अनुष्ठान कहा गया। अब सुयति सुश्रावक के विषयी रूप से उसको दिखाते हैं - जीय म यहह म अलियं जंपह म अप्पं अप्पह कंदप्पह । नरह म हरह म करह परिग्गह ए हु मग्गु सग्गह अपवग्गह ॥४१॥ (१०९) पुआ जिणिंदेसु रई यएसु जत्तो य सामाईयपोसहेसु । दाणं सपत्ते सवणं सतित्थे ससाहसेया सियलोयमग्गो ॥४२॥ (११०) जीवों का वध मत करो। झूठ मत बोलो। आत्मा को काम में अर्पित न करो। मनुष्यों को मत लूटो। परिग्रह मत करो। यही मार्ग स्वर्ग व अपवर्ग का हैं। विशेषता यह है कि प्राणिवध-विरमण आदि पंच अणुव्रत कहे गये हैं। व्यतिक्रम से कहने पर बंध के कारण हैं। जिनेन्द्रों में पूजा। स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि व्रतों में रति। सामायिक पौषध में यत्न। यहाँ पर इन दोनों को पृथग लेने का कारण यह है कि सावध का परिहार मोक्ष का प्रधान अंग है। ज्ञान आदि के आधार रूप साधु आदि सुपात्र में दान देना मोक्ष का अंग है, इससे विपरीत अपात्र में दान अनर्थ फल को सूचित करता है। प्रज्ञप्ति में कहा गया है - "समणोवासगस्स णं भंते! तहारूवं असंजयं, अविरय, अपडिहयपच्चक्खायपावकम्म, फासुएण वा अफासुएण वा एसणिज्जेण वा, अणेसणिज्जेण वा असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ?" हे भगवन्! तथारूप के असंयती, अविरति, अप्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म वाले को प्रासुक या अप्रासुक, एषणीय या अणेषणीय अशन, पान, खादिम, सादिम आदि से प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक क्या करता है? 219
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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