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________________ आर्द्रककुमार की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् अत्यधिक खुश हुआ। सौनन्देय (अभय ) के लिए भी मंत्री ने आर्द्रक कुमार का संदेश कहा। जिनधर्म के रहस्य को जाननेवाले अभय ने अपनी बुद्धि से विचार किया निश्चय ही व्रत की विराधना से इसकी आत्मा ने अनार्य देश में जन्म धारण किया है। आसन्न सिद्धि होने के कारण ही मेरे साथ प्रीति करने की उसकी इच्छा है। अभवी, दूरभवी या कोई भारे कर्मी जीव मेरे साथ किसी भी प्रकार से मैत्री की स्पृहा नहीं कर सकता । पापी अथवा पुण्यशाली जीवों की प्रीति समान व्यक्तियों से ही होती है। प्रायः समान स्वभाव वाले होने से एक ही कर्म की इच्छा करते हैं। अतः किसी भी उपाय से भवसागर में गिरते हुए उसे जिन धर्म में प्रतिबोधित करके परम मित्रता निभाऊँ । जिनबिम्ब के दर्शन से कदाचित् उसे जाति - स्मृति ज्ञान हो जाय। अतः उपहार के बहाने से उसे जिन बिम्ब भेजूँ। इस प्रकार विचार करके आदि जिनेश्वर की सर्व रत्नमयी दिव्यता को प्रगुणीकृत करने वाली प्रतिमा के बनवायी। ढक्कन वाली पेटी के अन्दर मञ्जूषा में उस प्रतिमा को रखकर घण्टी, धूप यन्त्र आदि पूजा उपकरण को रखकर, अंग वस्त्र तथा संपूर्ण अंगों के आभूषण आदि रखकर अन्दर ताला लगाकर उसे स्वयं अपनी से मुद्रा मुद्रित किया। फिर जब श्रेणिक राजा ने आर्द्रक राजा के विशिष्ट दूत को राजा के योग्य बहुत सारे उपहार देकर भेजा तो अभय ने भी वह पेटी उसे समर्पित करके और उसका वस्त्रादि से सत्कार करके मधुर अक्षरों में कहा भद्र! तुम यह मंजूषा ले जाकर मेरे मित्र को देना और यह सन्देश कहना कि यह मेरा सुन्दर स्नेह है। स्नान करके, एकान्त में रहकर, स्वयं ही इस पेटी को खोलना। मंजूषा खोलकर उसके मध्य रही हुई एकमात्र वस्तु को देखना । ऐसा ही होगा - यह कहकर वह अपने पुर को चला गया । श्रेणिक के समस्त उपहार आर्द्रक राजा को भेंट किये। फिर कुमार के महल में जाकर वह पेटी उसे समर्पित करके जैसा संदेश कहा गया था, वह सभी कहा । गया, तब आर्द्रक कुमार ने भी स्नान करके महल के मध्य खण्ड के भी मध्य खण्ड में प्रवेश किया । एकान्त में स्थित होकर पेटी को मुद्रा रहित करके उसे खोला । उसमें दिव्य - अंग वस्त्रों को देखकर उन्हें धारण किया। प्रत्येक अंग के प्रसाधन उसमें से निकाले । जब उस पेटी के अन्दर आदरपूर्वक रखी हुई एक मंजूषा को देखा तो उसे खोल कर उसमें अत्यन्त तेजमयी अर्हत् प्रतिमा को देखा । अहो ! यह अद्भुत भूषण कहाँ धारण करूँ ? शिर पर, कानों में, कण्ठ में, भुजाओं पर, वक्ष पर या हाथों पर कहाँ धारण करूँ? यह पहले देखी हुई प्रतीत होती है, पर मेरे द्वारा कब देखी गयी ? इस भव में या पर भव में? इस प्रकार विचार करते हुए मूर्च्छा से वह गिर गया। फिर कुछ क्षण बाद स्वयं ही उठकर, थोड़ा आश्वस्त होकर उसने विचार किया, उस समय उसे पूर्व भव का ज्ञान करानेवाला जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ। मेरा जीव पूर्व भव में मगध देश में वसंतपुर नामक नगर में सामायिक नामक कुटुम्बी था । उसकी बन्धुमती नामक भार्या प्राणों से भी प्रिय थी। किसी दिन सुस्थित आचार्य से धर्म सुनकर दोनों ने संसार से निर्विग्न होते हुए संपूर्ण सम्पदा को पात्रसात् करके उसी गुरु की सन्निधि में प्रव्रज्या को स्वीकार किया । श्रुतज्ञान को पढ़ते हुए वह गुरु के साथ विहार करने लगा। उसकी पत्नी भी अन्य प्रवर्तिनी के साथ कहीं अन्यत्र विहार करने लगी। किसी समय बहुत काल के पश्चात् एक ही नगर में गुरुदेव व प्रवर्तिनी का आगमन हुआ। सामायिक नामक साधु चिरकाल बाद अपनी प्रिया को देखकर पूर्व प्रेम को याद करके पुनः उसमें अनुरक्त हो गया। अपने मन को अनेक उच्च निदर्शनों द्वारा मोड़ने का प्रयास किया पर मोड़ने पर भी उसका मन मत्त हाथी की तरह वश में नहीं हुआ। तब उसने दूसरे मुनि से कहा- हे मुने! मेरा यह दुर्दान्त मन रोकने पर भी प्रेयसी की ओर दौड़ता है। उन्होंने कहा - यह क्या मुनिवर ! गीतार्थ होने पर भी आपकी यह विपरीत क्रिया कैसे? उसने कहा- क्या करूँ, मुनि! मेरा मन रूपी हाथी वश में नहीं होता । तब उस मुनि ने यह सारी बात प्रवर्तिनी से कही और प्रवर्तिनी ने बन्धुमती को कही। तब उसने शुद्ध बुद्धि से विचार किया. - - - 211
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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