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________________ आर्यरक्षिताचार्य की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् नहीं होगा। अतः गुरु को कहा - वत्स! तुम रूको। मैं जाता हूँ। तुम्हारे द्वारा भिक्षा के लिए घुमने से धर्म की लाघवता होगी। तब वे आर्य पात्र ग्रहण करके भिक्षा के लिए गये। किसी घर में किये गये अपद्वार से उन्होंने प्रवेश किया। तब उस घर के श्रेष्ठि ने कहा - तपोधने! यह क्या? अपद्वार से प्रवेश कर रहे हैं। इस द्वार से प्रविष्ट होवें। सोमदेव मुनि ने उस गृहपति को कहा - कदाचित् घर में लक्ष्मी आती है, तो क्या वह द्वार या अपद्वार देखती है? उनके मंगल वचन सुनकर श्रेष्ठि उनसे बहुत प्रसन्न हुआ। उन्हें विनायक की तरह मानते हुए बत्तीस दिव्य मोदक प्रदान किये। महर्षि ने भी हर्ष पूर्वक उन आनन्द प्रदान करने वाले मोदकों को ग्रहणकर स्मित मुख द्वारा गुरु के पास आकर आलोचना की। आचार्य ने भी कहा - तात! निश्चय ही आपके वंश में आवलि के क्रम से बत्तीस शिष्यप्रशिष्य होंगे। पर इन मोदकों को हे आर्य! आप इन किन्हीं को भी मत देना, क्योंकि इन पेटुओं ने कल आपको कुछ भी नहीं दिया था। उन हलुकर्मी आर्य ने कहा - वत्स! ऐसा करना मेरे लिये योग्य नहीं है। ये तुम्हारे शिष्य होने से मेरे पोते हैं। पुत्र भले ही कुपुत्र हो जाय, पर माता कभी कुमाता नहीं होती। अतः मेरे मन में ऐसा कुछ नहीं है कि मैं इनको कुछ न दूँ। अतः वह सारा आहार मुनियों को प्रदानकर पुनः अपने लिये गोचरी गये। शीघ्र ही खाण्ड तथा घी युक्त खीर लाकर भोजन किया। तब से सोमदेव मुनि विशिष्ट लब्धि संपन्न संपूर्ण गच्छ के उपकारक हुए। उनके गच्छ में अन्य तीन साधु भी लब्धिमन्त हुए, जिनका नाम वस्त्रपुष्य, घृतपुष्य तथा दुर्बलिकापुष्य था। वस्त्र पुष्य जब भी गच्छ में वस्त्रों का प्रयोजन होता तो द्रव्य से-जितना चाहे, उतने वस्त्र स्वयं प्राप्तकर ले आते थे। क्षेत्र से-मथुरापुरी में नित्य ही दुर्लभ वस्त्रों को वे प्राप्त कर लेते थे। काल से-शीत से पीड़ित लोगों के वस्त्र खरीदने में कसाकसी होने पर भी उनको प्राप्त हो जाते थे। भाव से - अत्यधिक कष्ट-वृत्ति द्वारा बुरी गति में रहे हुए भूख से मरते हुए बहुत-बहुत दिनों तक सूत को कातकर उत्सव आदि में पहनने के लिए जो वस्त्र बनाते थे, उस वस्त्र को भी वस्त्रपुष्य को जरुरत होती, तो वे सहर्ष प्रदान करते थे। घृत पुष्य भी जब-जब घी की जरुरत पड़ने पर जाता था, तो द्रव्य से-वह जितना चाहिए, उतना घी अपनी लब्धि द्वारा प्राप्त कर लेता था। क्षेत्र से - स्वभाव से ही अवन्ती नगरी में घी की अल्पता होने पर भी उन्हें यथेच्छित घी मिल जाता था। काल से-तो अति रुक्ष जेठ-आषाढ आदि महीनों में भी वे अपनी लब्धि द्वारा घी प्राप्त कर लेते थे। भाव से-गर्भवती ब्राह्मण अपने गरीब पति को बोली - प्रिय! मेरे प्रसवकाल में घी की जरुरत पड़ेगी। तब वह समस्त देश में आछे-जूते पाँवों में पहने हुए अर्थात् एडियों के घिस जाने पर भी छःमास तक माँग-माँगकर घड़े के घट को पूर्ण करता है। ऐसा दुर्लभ वह घी भी उसके घर आये हुए घृतपुष्य मुनि को पत्नी द्वारा सर्व घी संतोषपूर्वक दे दिया जाता था। दुर्बलिका - पुष्य प्रशस्त ज्ञान - लब्धि से संपन्न थे। उन्होंने चक्रवर्ती के निधि की तरह नौ पूर्व का ज्ञान अधिगत कर रखा था। सूत्रार्थ विषयक ध्यान में व्यग्र होने से वे आहार नहीं प्राप्त करने पर अथवा पीड़ित हुए रोगी की तरह दुर्बल हो गये थे। परावर्तन नहीं करने पर उसका श्रुत तत्क्षण छिद्रयुक्त भाजन में रहे हुए पानी की तरह शीघ्र ही नष्ट हो जाता था। अतः इस प्रकार दुर्बलता की प्राप्ति से समस्त श्रुत को प्राप्त पुष्यमित्र नाम होने पर भी दुर्बलिका पुष्य के नाम से ख्यात हुए। एक बार दशपुर में रहनेवाले उसके बंधुओं ने बौद्धों द्वारा सिखाये जाने पर कहा - प्रभो! ध्यान की एकाग्रता बौद्धों के सिवाय अन्यत्र कहीं नहीं दिखायी पड़ती। अन्यों के वेष की कल्पना तो सिर्फ जीविका के लिए ही हैं। गुरु ने कहा - ऐसा नहीं बोलो। तुम्हारा भाई ध्यान-योग से ही चन्द्र की तरह दुबला हुआ है। उन्होंने कहा - प्रभो! यह तो प्रान्त आहार से दुर्बल हुआ है। पहले अत्यन्त स्निग्ध भोजन करने के कारण यह अत्यन्त मांसल था। गुरु ने उनको कहा - अगर ऐसा ही है, तो जिस प्रकार माता अपने अभीष्ट आत्मज को खिलाती है, उसी प्रकार घृतपुष्य 199
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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