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________________ आर्यरक्षिताचार्य की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् उसके साथ ही दुष्काल भी खत्म हो गया। प्रातःकाल वहाँ बड़ा पोत धान्य से परिपूर्ण अवतीर्ण हुआ। चलते हुए महाकोष की तरह सुकाल की घोषणा राजा ने की। नागरिकों के गले में आये हुए प्राण जीवित हो गये। वज्रसेन मुनि भी वहाँ कितने ही दिनों तक रूके तब ईश्वरी शेठानी ने कहा - हे स्वजनों! मरते-मरते जीकर भी हम क्या उसका फल ग्रहण न करें। तब उन्होंने अपना धन सप्तक्षेत्र में देकर ईश्वरी, जिनदत्त, उनकी पुत्री चन्द्रा आदि सभी ने वज्रसेन के पास में अपार भवकान्तार से निकालने वाले पताका के समान संयम को ग्रहण किया। इस प्रकार शिष्य-प्रशिष्य आदि द्वारा श्री वज्र स्वामी की सन्तति भगवान की कीर्ति के मूर्तिमन्त रूप की तरह सभी दिशाओं में फैल गयी। उधर भगवान् वज्र स्वामी के पास से रवाना हुए आर्यरक्षित स्वामी गुरु की सन्निधि में पहुँचे। गुरु ने प्रसन्न होकर उसे अपने पद पर स्थापित किया। उसे गच्छ समर्पित करके वे स्वयं देवलोक में चले गये। तब आर्यरक्षित सर्व परिवार से युक्त होकर अपने बन्धु जनों को प्रतिबोधित करने के लिए दशपुर गये। दृष्टिवाद पढ़कर आये हुए उसे सुनकर राजा, माता-पिता तथा नागरिकों ने आकर हर्षसहित उसे वन्दन किया। चिर काल से सोम - पुत्र मुनि के अतिथि - भाव को स्वीकार करके नेत्रों द्वारा बाष्पाश्रुओं से सभी ने उन्हें अर्ध्य चढ़ाया। उनके हृदय के तम का हरण करके अपने उपदेश रूपी किरणों से नव्य सूर्य की तरह शाश्वत उद्योत किया। धर्म व अधर्म का सम्यग् निरीक्षण करके राजा ने गृहीधर्म ग्रहण करके जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। आर्यरक्षित की माता ने तो बहुत से स्वजनों के साथ सुखों की एकमात्र शय्यारूपी प्रव्रज्या को खुशी-खुशी स्वीकार किया। आर्यरक्षित के पिता सोमदेव भी उनके प्रेम के वश से उनके साथ ही रहने लगे, पर उनके साथ लिंग स्वीकार नहीं किया। वे कहते थे कि व्रत के लिए कहे हुए नग्नत्व जैसे वस्त्र परिधान को धारण करने में मैं समर्थ नहीं हूँ। पुत्रियाँ, बहुएँ, दोहित्रियाँ के रहते हुए मुझे लज्जा आती है। अगर छत्री, कमण्डल, जूते, यज्ञोपवीतसूत्र तथा वस्त्रों का त्याग न करना पड़े, तो व्रत ग्रहण कर सकता हूँ। श्रुत-उपयोग से आचार्य श्री ने जाना कि युक्तिपूर्वक समझाये जाने पर इन सब का ये क्रमपूर्वक त्याग कर देंगे। इस प्रकार विचार करके छत्रिका आदि का त्याग न किये जाने पर भी पुण्यात्मा पिता को अतिशय ज्ञानी आचार्य ने दीक्षा प्रदान की। उस वेष में भी वे सोमदेव महामुनि बिना खाये नवमानस अर्थात् अपूरितनये उत्साह से पिण्डैषणा आदि पदने लगे। एक बार आचार्य आदि चैत्यवंदना के लिए बाहर गये। श्रावकों के कुमारों को संकेत कर दिया कि छत्री मुनि को छोड़कर सभी को वंदन करना। तथा इन आर्य के सन्मुख एक साथ खूब आवाज करना। उनके द्वारा कहा हुआ बालकों ने किया। तब उन्होंने कहा कि मेरे पुत्र-पौत्र आदि को तो तुमने नमन किया, पर मुझे क्यों नहीं किया? क्या मैं प्रव्रजित नहीं हूँ। उन बालकों ने कहा - हे आर्य! क्या व्रतियों के भी छत्रिका आदि होती है? तब सोमदेव मुनि ने विचार किया कि इस छत्री से क्या प्रयोजन, अगर बालक भी इससे दूर भागते हैं। पुत्र आर्यरक्षित के पास जाकर कहा - वत्स! मुझे छत्री नहीं चाहिए। गुरु ने कहा - आर्य! छोड़िये! इसे छोड़ दीजिए। अगर ताप लगेगा तो हम आपके शिर पर ताप का निवारण करने के लिए कपडे का पर्दा कर देंगे यह हमारा कल्प है। एक दिन पुनः वे बालक परस्पर इस प्रकार कहने लगे - इन कमण्डल धारी यति को हम प्रणाम नहीं करेंगे। आचार्य ने भी कहा - उच्चार भूमि में पानी ले जाने के अलावा इस कमण्डल का भी त्याग कर दीजिए। ___ कितने ही दिन बीत जाने पर बालकों ने पुनः कहा - इन ब्रह्मर्षि को वन्दना नहीं करेंगे, क्योंकि इन्होंने यज्ञोपवीत पहना हुआ है। तब गुरु ने भी कहा - आर्य! इस सूत्र से हमें क्या प्रयोजन? क्या ब्राह्मण सूत्र पहने बिना हमें कोई ब्राह्मण नहीं जानेगा? इस प्रकार सब कुछ छोड़ देने पर भी उन शिशुओं ने कहा - इन लंबे वस्त्रधारी साधु 197
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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