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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् आर्यरक्षिताचार्य की कथा आर्यरक्षित द्वारा स्वीकार किये जाने पर मुदित होकर गुरु ने अपने शरीर पर भी ममत्व का त्याग करते हुए अनशन स्वीकार किया। उन्होंने आर्यरक्षित को शिक्षा दी कि वज्र स्वामी के साथ एक ही वसति में मत रहना। अलग रहकर ही अध्ययन करना। सोपक्रम आयु वाला जो कोई भी उनके साथ एक रात्रि भी वास करेगा, तो वह निश्चय ही उन्हीं के साथ काल को प्राप्त हो जायगा। 'तहत्ति' कहकर उन गुरु के आदेश को स्वीकार करके उनका अखिल कृत्य करके पुरी नाम की नगरी में आर्यरक्षित मुनि आये। शाम को वहाँ पहुँचने से उन्होंने गाँव के बाहर की वसति में ही निवास किया। . उधर वज्र प्रभु ने रात्रि में स्वप्न देखा - दूध से पूर्ण मेरे पात्र से कोई अत्यन्त तृष्णालु दूध पी गया, परंतु थोड़ा सा दूध उसने छोड़ दिया। प्रातः होने पर मुनियों से अपना स्वप्न और स्वप्न-फल कहा कि कोई भी आगन्तुक मुझसे श्रुत पढ़ने के लिए आयगा। पूर्वगत बहुत सारा श्रुत तो पढ़ लेगा, पर कुछ अल्पतर ज्ञान मेरे पास ही रह जायगा। तभी आर्यरक्षित ने आकर शीघ्र ही द्वादश आवर्तन द्वारा वंदना करके अभिवन्दन किया। वज्र प्रभु ने उससे पूछा - कहाँ से आये हो? रक्षित मुनि ने भी कहा - तोसलि पुत्र नामक गुरु के पास से आया हूँ। वज्र प्रभु ने संभ्रान्त होते हुए कहा- क्या आप आर्यरक्षित है? उसने प्रणामपूर्वक कहा - हाँ! वह मैं ही हूँ। हे पूर्वधारी! आपसे पूर्वो का ज्ञान पढ़ने के लिए आया हूँ। हे प्रभो! अन्य आचार्यों के पास दस पूर्वो का समस्त ज्ञान नहीं है। उसको संतोष का पात्र जानकर वज्र स्वामी ने स्वागत पूर्वक कहा - हे वत्स! क्या रहने के लिए पवित्र स्थान है? उसने कहा - भगवान्! गाँव के बाहर ठहरा हूँ। स्वामी ने कहा - बाहर रहे हुए कैसे अध्ययन कर पाओगे? उसने कहा - भद्रगुप्त नामक क्षमाश्रमण पुंगव की आज्ञा से बाहरी उपाश्रय में ही उत्तीर्ण हूँ। वज्र प्रभु ने श्रुत उपयोग से उस कारण को जानकर कहा - वत्स! ऐसा ही हो। क्योंकि - पूज्यादेशो वृथा न हि । पूज्यों के आदेश वृथा नहीं होते। फिर अन्य उपाश्रय में रहते हुए भी वज्र स्वामी ने आर्यरक्षित को अपने अन्ते वासी की तरह आदर सहित पढ़ाना शुरु किया। उस सोम-पुत्र ने एक लीला की तरह नौ पूर्व तो पढ़ लिये। श्रुत-अध्ययन की लालसा से दसवाँ पूर्व भी शुरु कर दिया। दसवें पूर्व के अति सूक्ष्म तथा बहुत ही विषम यमक आदि को आर्यरक्षित पढ़ने लगा। इधर उसके माता-पिता ने शोक विह्वल होते हुए वाक्य निष्पादित संदेश भेजा - वत्स! क्या तुम हमें भूल गये हो? हमने तो सोचा था कि तुम पढ़कर आओगे, तो हमारे उद्योत के लिए होगा। पर तुम्हारे न आने से हमारा सोचा हुआ तत्त्व विशेष रूप से अंधकार के लिए ही साबित हुआ। इस प्रकार पिता के बहुत से सन्देशों की अवमानना करके आर्यरक्षित गीत में आसक्त मृग की तरह अध्ययन में आसक्त होकर स्थित रहा। तब माता-पिता ने उसके छोटे भाई फल्गुरक्षित को भेजा ताकि यह अपने ज्येष्ठ बंधु को बुलाकर अपने साथ ले आ सके। वह भाई के समीप आकर भ्राता को नमस्कार करके स्नेहपूर्वक बोला - हे भाई! मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या आपने जन्मान्तर प्राप्त कर लिया है? हे बन्धु! यदि निर्ममत्व रूपी असि द्वारा प्रेम के बन्धन काट डाले हैं, तो क्या अपने कुटुम्ब का उद्धार करने के लिए आपकी कृपा भी नहीं है? भाई के इस प्रकार कहने पर शुद्ध मति द्वारा रक्षित स्वामी ने निर्बन्ध प्रभु से पूछा - यह मुझे बुलाने आया है। तो मैं क्या करूँ? स्वामी ने कहा - तुम अध्ययन करो। इस प्रकार की सामग्री में मोहित मत बनों। तब गुरु की दक्षता से वह पुनः अध्ययन करने लगा। पुनः फल्गुरक्षित ने आर्य रक्षित से कहा - तुम्हारे वहाँ आने पर सभी परिजन व्रत ग्रहण करने की इच्छा रखते हैं। पर तुम पठन में व्यग्र होते हुए कुछ भी विचार नहीं करते हो। भरे हुए पेट वाले की तरह तुम अपने ही स्वार्थ में तत्पर नजर आते 194
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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