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________________ वज्र स्वामी की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् वज्र मुनि भी गुरुदेव के शब्द सुनकर शीघ्र ही चतुराईपूर्वक आसन छोड़कर साधुओं की उपधी को यथास्थान रखकर गुरु के समीप आया। प्रसन्नता पूर्वक गुरु के हाथ से दण्डक लेकर उनके पाद-पद्मों से रज का प्रमार्जन करके प्रभु के चरणों को अपने कौतूहल से कृत निर्मल मन द्वारा प्रक्षालित किया। गुरुदेव ने विचार किया कि बालक होते हुए भी यह मुनि श्रुतसागर का पान करने वाले अगत्स्य ऋषि की तरह सीमातीत प्रज्ञावान् होगा। इस मुनिपुंगव का कोई अन्य मुनि पराभव न करने पाये। अतः भुवन में अतिशायी इसकी महत्ता का सभी मुनियों को बोध कराऊँगा। इस प्रकार विचारकर रात्रि में सभी मुनियों को बुलाया और कहा - मैं अमुक गाँव में जाऊँगा। वहाँ मुझे दो-तीन दिन लग जायेंगे। तब साधुओं ने गुरुदेव को ज्ञापित करवाया - आपके जाने के बाद हमारे वाचनाचार्य कौन होंगे? गुरुदेव ने कहा - वज्रमुनि तुम्हारे वाचनाचार्य होंगे। उन विनीत शिष्यों ने भी गुरु के वचनों को बिना किसी शंका के, बिना किसी अन्य विचार से 'तहत्ति' कहकर स्वीकार किया। प्रातःकाल गुरुदेव के ग्राम चले जाने पर शेष मुनियों ने गुरुदेव की ही तरह वज्र मुनि का आसन बिछाया। वज्र मुनि भी गुरुदेव के आदेश से महामति रूप से वहाँ विराजे। गुरु के स्थान पर बैठे हुए बालक हए भी वे गुरु के समान शोभित होने लगे। काल-प्रवेदन आदि सभी कृत्य प्रातःकाल में गुरु की तरह ही उनके सामने सभी तपोधनी मुनियों ने किया। फिर सभी मुनि पढ़ने के लिए बैठे। वज्र मुनि ने भी स्पष्ट तथा अस्खलित वचनों द्वारा वाचना दी। वज्र मुनि की कुशलता-युक्त जोरदार वाचना सुनकर जो मन्द बुद्धि साधु थे, उन्होंने थे, उन्होंने भी पढ़ना शुरु कर दिया। वज्रमुनि ने जड़ बुद्धि वालों के जड़ता रूपी पर्वत का भेदन किया। उनका अतिशय देखकर सारा गच्छ विस्मित रह गया। पहले के पढ़े हुए ज्ञान में जो कुछ संदिग्ध रह गया था, वह सभी भी वज्रमुनि से पढ़कर उन्होंने निःशंकित कर लिया। जो ज्ञान उन्होंने गुरुदेव के पास अनेक वाचनाओं द्वारा प्राप्त किया था। वह सभी ज्ञान व मुनि ने एक ही वाचना द्वारा मुनियों को समझा दिया। संतुष्ट होते हुए मुनि परस्पर कहने लगे कि अगर गुरुदेव कुछ दिन और ठहरकर पधारें, तो उनके आने से पहले ही हम यह श्रुतस्कन्ध वज्रमुनि के पास ही पढ़कर पूर्ण कर लें। इस प्रकार वज्रमुनि साधुओं में अत्यन्त सम्मान के पात्र बन गये। गुण किसको प्रमुदित नहीं करते और जब गणी सतीर्थिक हो. तो प्रसन्नता की तो बात ही क्या? उधर गुरुदेव ने विचार किया कि इतने दिनों में वज्रमुनि के गुणों ने साधुओं के दिल में अपनी जगह बना ली होगी। मुनियों का भी जो कुछ अध्ययन शेष रह गया होगा, वह सभी अब मैं पूरा करवा दूंगा - ऐसा विचार करके गुरुदेव उस गाँव से वापस आये। वज्र-प्रमुख साधुओं द्वारा आनन्दपूर्वक वन्दना की गयी। गुरु ने पूछा - क्या आपका स्वाध्याय हो गया? उन्होंने कहा - बहुत सारी विज्ञप्ति (वाचना) हो गयी है। अब से हमारे वाचनाचार्य वज्र मुनि ही रहें, यह हमारी आपसे विनती है। इतने दिनों तक हम इनके गुण से अज्ञात थे, पर अब ज्ञात हो गये हैं। अब आपके चरण कमलों की ही तरह हम इनकी आराधना करेंगे। गुरुदेव ने कहा - हे भद्रों! अब यही तुम्हारे गुरु होंगे। बालक होने पर भी ज्ञान से वृद्ध होने से तुम लोग कदापि इनकी अवमानना न करना। तुम लोगों को इनके गुणग्राम का ज्ञान कराने के लिए ही इन्हें वाचनाचार्य बनाकर हमलोग गाँव को गये थे। अन्यथा तो इनकी वाचना-आचार्यता कल्पनीय नहीं है, क्योंकि इन्होंने यह श्रुतज्ञान कर्ण-श्रुति से पाया है, गुरु द्वारा दत्त ज्ञान नहीं है। अब मैं इन्हें संक्षेप में ही श्रुत का सूत्रार्थ-वाचना दूंगा। जिससे ये आचार्यपद की योग्यता को प्राप्त करेंगे। पढ़ा हुआ अथवा बिना पदा हुआ सभी श्रुत गुरु ने वज्र मुनि को दिया। कहा भी है - भूतिं स्वां पात्रसात्कुरुते न कः । अर्थात् अपनी विभूति को कौन पात्र-सात् नहीं करता? (अपने सत्पात्र को कौन ज्ञानदान नहीं देता? अर्थात् - 187
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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