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________________ वज्र स्वामी की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् आओ। हे वत्स! मैं चकोर की तरह उत्सुक हूँ। मुझे अपना मुख दिखाओ । चन्द्रमा की तरह पूर्ण रूप से धरातल पर अवतीर्ण होओ। मेरे सम्मुख देखकर मुझे थोड़ा सा तो अनुगृहीत करो। हे पुत्र ! क्या सुन्दर आलाप की भी संभावना नहीं है? अपनी माँ को अधीर न बनाओ । हे मेरे जीवन ! आओ! आओ! अपने वियोग की अग्नि के ताप से दुःखी मुझे जीवन का आलिंगन प्रदान करो। इस प्रकार मुझ विलाप करती हुई को हे पुत्र ! उत्तर दो। क्या मुझ मात को भी तुम वैरिणी के समान मानते हो? मैं तुम्हें इन्द्र के समान मानती हूँ। अतः आओ ! चन्द्रकान्त मणि के समान यह ऐरावत हाथी छोटा होकर तुम्हारे साथ खेलने के लिए आया है। हे पुत्र ! यह स्वर्णमय घोड़ा किस तरह से बनाया हुआ है। वेगपूर्वक समुद्र तट पर दौड़ता हुआ यह प्रतीत होता है । देखो ! इधर अनेक रत्नों से बनें इस क्रीड़ा रथ को देखो। पांचों इंद्रियों रूपी अश्व के मनरूपी सारथी की तरह प्रतीत होता है । देखो लकड़ी से बनी हुई इस ढाल व तलवार को हाथ में लिये हुए योद्धाओं को देखो कीलिका के प्रयोग से सजीवों की तरह युद्ध करते हुए प्रतीत होते हैं। नीलम के रंग वाले शरीर तथा पद्मराग के रंग वाली चौंच से युक्त यह खेलनेवाला तोता तुम्हें कुछ कहता हुआ दिखायी देता है। देखो! गुण का संचार करती हुई नाचती हुई इस लकड़ी की नर्त्तकी को देखो। यह गायकों के आधार से बना हुआ संस्थान मानो तुम्हारें गुण गाने के लिए ही है। देखो ! इस काष्ठमय वंश - वीणा आदि कलात्मक वादकों को देखो । ये तुम्हें अपनी कला दिखाने के लिए ही आये हैं। इन सिंह, हाथी, बैल, वानर आदि को ग्रहण करो । वत्स! क्या इन्हें देखकर तुम्हें थोड़ा भी कौतुक नहीं होता? हे वत्स! इस स्वच्छ हार को अपने कण्ठ स्थान पर धारण करो। तुम्हारे मुखरूपी चन्द्र के पास यह हार तारों की शोभा को प्राप्त करेगा। हे वत्स ! कानों में स्वर्ण कुण्डल को धारण करो । झूलते हुए ये कुण्डल सुन्दर शोभा को धारण करेंगे। अपनी अंगुलियों को इन अंगूठियों से अलंकृत करो। हे सुभग अग्रिम ! तुम्हारी भुजाएँ लताओं की तरह शोभित होंगी। इस बाजुबन्ध को राखड़ी अथवा तावीज की तरह धारण करो । हे पुत्र ! चुपचाप क्यों बैठे हो ? सिर पर साफा धारण करो। इस दिव्य वस्त्र से बने हुए पट्ट को धारण करो । स्वर्ण तंतुओं से बने इस अंगरखे (कुर्ते) को अपने अंग पर धारण करो । हे पुत्र ! इस वल्कल से बने हुए पट्ट से जो तुमने शरीर ढक रखा है, इसे दूर करो। इस रत्न - कन्दुक को स्वीकार करो। हे कुमार! मन को प्रमुदित करनेवाले इन मोदकों को स्वीकार करो । अमृत के समान शक्कर से एकत्रीभूत होकर बने हुए ये मोदक हैं। यह खजूर, सिंघोड़े आदि के द्वारा बनाये हुए ये मोदक हैं। तिल के लड्डु आदि के एक-एक दाने में अद्भुतरस रहा हुआ है। ये पीली उजली खजूर की अंकुरित शाखाएँ है । यह सुखादि देनेवाली किसमिस है। इसकी तरफ मुख करो। सत्कवि के काव्य की तरह यह चबाने में आनंददायक है। नारियल के गोलक को ग्रहण करके हे पुत्र ! मुझे अनुग्रहित करो। और भी दाड़म, नारंगी, आम, केले आदि को देखो । ये सभी रसों के बीज रूपी उच्च फल है। हे पुत्र ! कुछ तो ग्रहण करो। मुझे निराश मत करो। अन्यथा मेरी लाघवता से छाती फट जायगी। इधर वज्र बालक होते हुए भी खाने, खेलने, चाटने आदि में अनासक्त आत्मा वाला था । पर माँ की दीनता देखकर वह कुछ-कुछ दयार्द्र हो गया। उसने विचार किया कि यह संघ तो क्रम पूर्वक तीन जगत् से वन्दित है । इधर मेरी माँ निरालम्ब है, अतः मेरा मन दोलायमान होता है। यदि गुरु के पास जाता हूँ, तो माता का सब कुछ नष्ट हो जायगा। और अगर माता के पास जाता हूँ, तो संघ का अपमान होता है । पर माता अभी अत्यधिक दीन अवस्था है, अतः इसे छोड़ना युक्त नहीं है। माता का त्याग करके मैं उसके उपकारों से कैसे उऋण हो पाऊँगा । इस प्रकार विचार करते हुए पुनः उसके मन में दूसरी चिन्तन धारा स्फुटित हुई - ओह ! यह मैंने अनन्त संसार के कारण को क्यों सोचा ? मेरे लिए ही तो यह संघ राज- - भूमिका पर आरूढ़ हुआ है । मुझ ग्यारह अंग के ज्ञानी को भी यह भ्रम पैदा हो गया। मैं कुबुद्धिवाला इस संघ का अपमान करके किस गति में जाऊँगा? कहा भी है. - 184
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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