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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् कुमार्ग का वर्णन में उसकी प्रस्तावना को कहते हैं - दुलहा गुरु कम्माणं जीवाणं सुद्ध धम्मबुद्धी वि । तीए सुगुरुं तंमि वि कुमग्गठिड़ संकलाभंगो ॥१॥ (६९) भारी कर्म वाले जीवों को शुद्धधर्म की बुद्धि भी दुर्लभ है। बुद्धि होने पर सुगुरु तथा सुगुरु मिलने पर कुमार्ग स्थिती रूपी व्यवस्था की श्रृंखला का भंग दुर्लभ है। __ अर्थात् भारी कर्मी जीव को शुद्ध धर्म रूपी बुद्धि का मिलना दुर्लभ है। अतः काया से अनुष्ठान करना चाहिए। फिर कदाचित् भवितव्यता के योग से धर्मबुद्धि मिल भी जाय तो सुगुरु मिलना दुर्लभ है। किसी भी प्रकार से कर्म क्षयोपशम से सुगुरु मिल भी जाय, तो उनके प्राप्त होने पर कुमार्ग अर्थात् मोक्ष के प्रतिपन्थी - मार्ग में स्थिती व्यवस्था रूप सांकल का भंग दुर्लभ है।।१।।६९।। " कुमार्ग को जानने पर ही उसका अच्छी तरह निषेध किया जा सकता है। अतः उसको बताने के लिए कुमार्गगामी उपदेशकों के द्वारा निम्न प्रकार से कुमार्ग का उपदेश दिया जाता है। उसे कहते हैं - जिणभवणे अहिगारो जड़णो गिहिणो वि गच्छपडिबद्धा । जह तह देयं दाणं सुविहियपासे वयनिसेहो ॥२॥ (७०) जिणभवणबिंबपूयाकरणं कारायणं जईणंपि । आगमपरम्मुहेहिं मूढेहिं परुविओ मग्गो ॥३॥ (७१) युग्मम्॥ जिनभवन में सर्वसावध विरत यति का भी अधिकार होता है अर्थात् जिनभवन में वस्तु जिनद्रव्य आदि का विचार करने के लिए यति का भी अधिकार होता है। उस प्रकार से यतियों के न होने पर सावद्य - आरम्भ में रत गृही का भी अधिकार होता है। वह गृहस्थ गच्छ प्रतिबद्ध स्व-स्व आचार्य के वशवर्ती होना चाहिए। यथा तथा - जैसे-तैसे किये हुए, खरीदे हुए लाये हुए आदि दोष की तरह पात्र-अपात्र आदि का विचार किये बिना यति वेषधारियों को दान देना चाहिए। उस प्रकार से सुविहित पार्श्व में व्रत का निषेध अर्थात् 'तुम मेरे गच्छ के हो' इस प्रकार बोलते हुए मूद लोगों को सुगुरु के पास व्रत लेने नहीं देता है। मुग्ध जन को वे किस प्रकार विप्रतारणा करते हैं उसे बताते हैं - जा जस्स ठिइ जा जस्स संतई पव्वपरिस कयमेरा । सो तं अईक्कमंतो अणंतसंसारिओ होई ॥१॥ अर्थात् जो जिसकी स्थिती है, जो जिसकी संतति पूर्वपुरुषों द्वारा बतायी गयी है, वह उसका अतिक्रमण करता हुआ अनंत संसारी होता है। अर्थात् तुम मेरे गच्छ के हो अतः तुमको मेरे पास ही दीक्षा लेनी चाहिए। जिन भवन में रहे हुए बिम्ब की पूजा करने व कराने में यति भी अधिकारी है। तथा आगम से पराङ्मुख मुद्दों के लिए भी यह मार्ग प्ररूपित किया गया है।।२-३।।७०-७१।। इनकी कुमार्गता जिन वचन के अधःकरण [विपरीत आचरण] से होती है। इसको दिखाने के लिए कहते हैंसमणाणं को सारो छज्जीयनिकायसंजमो एअं। वयणं भुवणगुरुणं निहोडियं पयडरुवंपि ॥४॥ (७२) श्रमणों का क्या सार है अर्थात् क्या प्रधान है? छः जीवनिकायों का संयम यानि रक्षा। अर्थात् यह भुवन गुरु अर्थात् अर्हन्तों के वचन का प्रकट रूप यानि स्पष्ट स्वभाव रूप है। इसके विपरीत कहना छ जीवनिकाय की रक्षा के विपरीत प्ररूपणा करनी व आचरण करना यह जिनेश्वर का अनादर है यानि यह कथन अधःकृत के लिए है। क्योंकि वे सर्वप्रकार से जिन मन्दिर के व्यापार में रहते हुए, 176
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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