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________________ इलाची पुत्र की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् नामकी देवी नगर देवता थी। उससे जो भी माँगो, वह मिलता था, अतः पूरे नगर में उसकी ख्याति थी। इस प्रकार के लोक प्रवाह के कारण श्रेष्ठि ने भी अपनी प्रिया के साथ आदरपूर्वक पुत्र की याचना की। सेठ ने कहा - अगर मेरा पुत्र हुआ, तो मैं उसे तुम्हारा नाम दूंगा। तुम्हारी यात्रा करवाऊँगा। और तुम्हारा बहुत बड़ा भवन बनवाऊँगा। भवितव्यता से सेठानी गर्भवती हो गयी। समय आने पर शुद्धतम दिवस पर पुत्र-जन्म हुआ। तब सेठ ने इलादेव का धाम करवाकर बहुत बड़ी यात्रा करवायी। बारहवें दिन पुत्र का नाम इलापुत्र रखा। पर्वत राज की कन्दरा के अंदर स्थित श्रेष्ठ चम्पक वृक्ष की तरह वह अपने पिता के घर में बिना विघ्न बड़ा होने लगा। क्रमशः कला शास्त्रों आदि सभी को थोड़े ही दिनों में पूर्ण रूप से पढ़कर वह उसमें कलासृष्टा की तरह विज्ञ बन गया। तारुण्य अवस्था प्राप्त होने पर वह जनों को आनन्दमय करता हुआ बुरे विलासी मित्रों के साथ स्वेच्छा वृत्ति से खेलने लगा। ____एक दिन उसने नगर के अंदर नाचती हुई लंख पुत्री को देखा। अपने ज्ञान की अतिशयता से एवं उस नट कन्या में रहे हुए गुणों को जानकर उसने विचार किया कि इसके रूप की तुलना जगत में असंभव है। अहो! इसकी लावण्य रूपी दुग्ध-समुद्र की लहरें आकाश का स्पर्श कर रही है। अहो! इसकी विज्ञान लीला का प्रकर्ष अंतिमपद की ओर है। ज्यादा क्या कहा जाय? इसको बनानेवाला विधाता ही कोई और था। यह नृत्य करते हुए अप्सराओं को भी नीचा दिखा रही है। इन्द्र भी अगर इसको नृत्य करते देखें, तो प्रशंसा करते हुए उसकी दृष्टि भी निर्निमेष हो जायगी। इस प्रकार विचार करते हुए परमार्थ की तरह उसके उद्दाम गुणों से वह नटी के अंदर ही नियन्त्रित हो गया। उसको चित्र की तरह निश्चल देखकर उसके मित्रों ने उसका हाथ पकड़कर कहा - हे मित्र! क्या सोच रहे हो? पर उसने उदीरित भद्र की तरह कुछ भी नहीं सुना। मूक की तरह वह मूढ़-धी कुछ भी नहीं बोला। कुल की मर्यादा का त्यागकर, अपकीर्ति के भय से उत्पन्न होने वाली लज्जा का त्यागकर उसके नृत्य में लीनात्मा होता हुआ मन में विचार करने लगा - मैं इस पद्माक्षी नटी से विवाह करूंगा। अगर नहीं कर पाया तो जीवित ही जलती अग्नि में प्रवेश करके अपने प्राण त्याग दूंगा। उसके व्याकुल मित्रों द्वारा किसी तरह उसे घर ले जाया गया। घर पर भी वह चिन्ताज्वर से युक्त रोगी की तरह बैठ गया। उसके माता-पिता ने उसे अन्यमनस्क देखकर उसके मित्रों से पछा - यह अव्यवस्थित क्यों है? तब मित्रों द्वारा आग्रहपूर्वक पछे जाने पर उसने निर्लज्जता पर्वक कहा - उस नटी से शादी करने के लिए मझे धन चाहिए। यह कर उसके पिता एकदम वज्राघात की तरह हो गये। फिर उसके पास जाकर कहा - वत्स! तुम यह क्या सोच रहे हो? सुशीतमपि चाण्डालं जलं विप्रः किमिच्छति? अत्यधिक शीतल होते हुए भी चण्डाल के जल को क्या कभी ब्राह्मण पीता है? हे कपत्र! क्या इभ्य सेठों की रूपवती पत्रियाँ खत्म हो गयी है? यह तम्हारा कहना ही अयोग्य है कि तम नटी में मोहित हो। तब इलापुत्र ने कहा - तात! मैं भी यह जानता हूँ। पर इस स्त्री का काम मुझमें ऐसी हिम्मत पैदा करता है। कामबाण से पीड़ित महान व्यक्ति भी क्या कृत्य-अकृत्य की गणना करता है? अतः आप यह सभी जानकर भी क्या आदेश देते हैं? प्रेष्ठि ने उसको चिकित्सा के अयोग्य जाना। कुधी होने से यह शास्त्र वचनों के स्मरण की भी उपेक्षा कर रहा है। इलापुत्र ने मित्रों द्वारा नट को इस प्रकार कहलवाया कि मुझे तुम्हारी कन्या दे दो। इसके बदले मैं तुम्हें उतना ही स्वर्ण तोलकर दे दूंगा। उन्होंने भी कहा - बहुत से धन से भी हमसे यह कार्य नहीं हो सकता। क्या हमारी यह नटी हमारे द्वारा बेचने के लिए लायी गयी है? और भी धन, निष्ठा, भोगादि तो बहुत ज्यादा होने पर भी चले जाते 171
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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