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________________ नंदिषेण की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् होकर नन्दीषेण मुनि बैले से छ: मासी तप करने तक सदैव शद्धात्मा के रूप में तत्पर रहते थे। अपने तप तथा वैयावत्य द्वारा सभी जगह वे प्रसिद्धि को प्राप्त हए। एक बार शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान से भरत क्षेत्र में उपयोग लगाया, तो नन्दीषेण मुनीन्द्र की वैयावृत्य देखकर विस्मित रह गया। अपने वैयावत्य आदि कत्यों से प्रसिद्ध नन्दीषेण मुनि को कराम्बुजों द्वारा प्रणाम करके सभा के मध्य सिर हिलाते हुए देवेन्द्र ने मुनि की भूरि-भूरि प्रशंसा की। अहो! मुनि नन्दीषेण द्वारा कृत उद्यम! महाभाग, महासत्त्व रूप वे मुनि देवों द्वारा क्षुभित होने में भी समर्थ नहीं है। शक्रेन्द्र के उन वचनों को नहीं मानता हुआ कोई देव परीक्षा करने के लिए नन्दीषेण मनि के पास आया। उसने जंगल में जाकर एक रूप तो अतिसार से पीड़ित मुनि का बनाया व दूसरा रूप मुनि का बनाकर साधुओं के उपाश्रय में गया। अक्षि गोलकों को ललाट पट पर चढ़ाकर देखने में कठिन रूप बताकर कहा - कहाँ है? कहाँ है वह नन्दीषेण? नन्दीषेण मनि ने बेले के पारणे के लिए क्षुधा से मुँह खोलकर हाथ में कवल लिया हो था, कि उन को उस रूप में देखकर वह मुनि कठोर स्वर में बोला - अरे! तुम नन्दीषेण हो? तुम वैयावृत्य करने वाले हो? अभिग्रह ग्रहण करके भी तुम पेटु, खावैये हो। भुक्खड़ की तरह पात्र भरकर खाने के लिए बैठे हो। भोजन में अनासक्त नन्दीषेण मुनि मिच्छा मि दुक्कडं कहकर संभ्रान्त होते हुए कवल को छोड़कर उठ खड़े हुए। सुधा-मधुर वाणी में उस साधु को कहा - आज्ञा कीजिए। मुझे आपके प्रयोजन का पता नहीं था, अतः भोजन करने के लिए बैठ गया था। उसने कहा - गाँव के बाहर अतिसार से पीड़ित एक ग्लान साधु है। वैयावृत्य करने वाले के अभाव में प्यास से वे मर जायेंगे। नन्दीषण ने कहा - भद्र! आप मुझे उन मुनि को दिखाइये। जिससे मैं पथ्य, औषध, चिकित्सक आदि द्वारा उनकी प्रति-जागरणा कर पाऊँ। फिर एक-एक घर में जाकर उन्होंने पानी की गवेषणा की। मुनि को विचलित करने के लिए उस देव ने हर जगह अनैषणा कर दी। फिर भी मुनि के तप प्रभाव से शुद्ध जल प्राप्त हुआ। फिर शीघ्र ही उन ग्लान साधु के पास गये। साधु ने उन पर रोष प्रकट करते हुए कहा - देखो! मेरी यह अवस्था है। तुम तो भोजन में आसक्त हो। तुम्हें तो ग्लान की चिन्ता ही नहीं है। जैसे-जैसे तुम को लोग वैयावृत्य करनेवाला अभिग्रही बताते हैं, वैसे-वैसे तुम प्रशंसा से फूल-फूल जाते हो। खुद वैयावृत्य करते नहीं, करने वाले अन्य का निषेध करके अभिग्रह ग्रहण करके तुम ग्लान के गले पर बैठ जाते हो। क्षुधा के अन्तस्ताप से तप्त भी उन साधु के मर्मभेदी वचनों को सुनकर भी नन्दीषेण मुनि में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मानो उन्होंने क्रोध को कभी छुआ ही नहीं हो। अति प्रसन्न होकर सुकुमार वाणी द्वारा उन्होंने मुनि को कहा - हे मुने! मेरा अपराध क्षमा करें। मैं आपको नीरोग बनाऊँगा। इस प्रकार कहकर उनको शुद्ध करके वह पानी उन्हें पिलाकर के उनका हाथ पकड़ कर कहा - आप अब वसति में पधारें। उन मुनि ने कुपित होकर कहा - हे मूद! तुझे धिक्कार है। हे अज्ञानी! मेरी इस प्रकार की अशक्त काया भी क्या तुम्हें दिखायी नहीं देती? तब नन्दीषेण मुनि उनको अपने कन्धे पर बिठाकर बसति की ओर चले। वह मुनि ऊपर बैठा-बैठा क्रोधित होते हुए पग-पग पर कहने लगा - मुझे मत हिलाओ। उसके कन्धे पर यत्नपूर्वक आरुद छभ-व्रत-वेशी देव ने नाक को फोड़ने वाली अति दुर्गन्ध युक्त विष्टा छोड़ी। फिर कहने लगा कि तुम वेगपूर्वक चलते हुए मुझे पीड़ा प्रदान करते हो। हाय! हे शैक्षक! क्या मुझ रोगी को तुम मार ही डालोगे। नन्दीषेण मुनि ने मल से लिप्त हो जाने पर भी अपनी शुद्ध मति से जुगुप्सा नहीं कि, बल्कि विचार करने लगे कि यह तो शरीर-तत्त्व है। उस मुनि के नीम से भी ज्यादा कड़वे दुर्वचनों को सुनकर उन्होंने विचार किया कि यह रोग से पीड़ित होने के कारण कुछ भी बोल देते हैं। उनके दुःख से दुःखार्त्त होकर नन्दिषेण मुनि विचार करने लगे कि ये नीरोगी कैसे होंगे? 169
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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