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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नर्मदासुंदरी की कथा करके वे सभी न तो एक दम पास न एक दम दूर - गुरु के पास बैठ गये। गुरु ने भी मोक्ष सुख को प्रदान करने वाले निर्मल धर्म का उपदेश दिया - इस अपार संसार में जीव अपने द्वारा पूर्व में किये हुए कर्मों का ही शुभ या अशुभ रूप फल भोग करते है। यह सुनकर वीरदास ने हाथ जोड़कर मस्तक पर लगाकर पूछा - प्रभो ! मेरे भाई की पुत्री नर्मदा ने पूर्व में ऐसा कौन सा कर्म किया था, जिससे अद्भुत शीलवती होते हुए भी इस प्रकार की दुर्दशा को प्राप्त हुई। गुरुदेव ने सुधासिक्त वाणी से कहा - यहाँ भरत क्षेत्र के मध्यखण्ड में भूभृद् पर्वत है। जिस पर अद्भूत धान्य-घास आदि का समूह उगता है, जिसे गायें सुखपूर्वक चरती हैं। उस पर्वत से महावेग वाली नर्मदा नदी निकलती है (बहती है) । उस नदी की अधिष्ठात्री नर्मदा नामक मिथ्या दृष्टि देवी थी। उस देवी ने एक बार धर्मरुचि मुनि को देखकर कुबुद्धि धारण किये हुए के समान अनेक उपसर्ग किये। साधु के निश्चल रूप रहने पर उसने स्व की निन्दा की। फिर साधु द्वारा प्रतिबोधित होने से वह सम्यक्त्व - धारिणी बन गयी । वहाँ च्यवकर वह तुम्हारे भ्राता की पुत्री नर्मदासुन्दरी बनी। इसके गर्भ में आने पर इसीलिए माता को नर्मदा स्नान का दोहद उत्पन्न हुआ। मत्सर भाव से इसने साधु की धृष्टता करके निकाचित कर्मों का बन्धन किया । इतने काल तक उसने उन्हीं दुःसह कर्मों का फल भोगा । कर्मों का उदय आने पर ही इसने गीत - गायक के स्वर से उसका पूरा स्वरूप पति को कहा और इसी कारण पति ने उसको असती मानकर त्याग दिया। प्रशान्त तब अपने चरित्र को सुनकर नर्मदा को पूर्वभव का स्मरण हुआ। तब संवेग पूर्ण होकर उसने गुरु के पास में व्रत ग्रहण कर लिया। दुस्तप को करते हुए उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । तब उसे योग्य जानकर गुरु ने उसे प्रवर्तिनी पद पर स्थापित कर दिया। फिर विहार करते हुए वह कूपचन्द्रपुर गयी। बहुत सी साध्वियों से घिरी हुई वह ऋषिदत्ता के घर के एक भाग में ठहर गयी । वह सदा अर्हत् धर्म का कथन करती। ऋषिदत्ता भी आदरपूर्वक सुनती। महेश्वरदत्त भी ध्यान से सुनता था । एक बार उसने महेश्वरदत्त को प्रतिबोध देने के लिए स्वर - मण्डल - शास्त्र का परावर्तन किया। इस प्रकार का स्वर होने पर मनुष्य के शरीर का वर्ण इस प्रकार का होता है। इस प्रकार का स्वर होने पर उसकी उम्र इतने वर्ष की होती है। इस प्रकार के स्वर से वह इस देश का होता है। इस प्रकार का शब्द होने पर उसके गुह्य प्रदेश में म होता है। इस प्रकार का स्वर होने पर छाती पर रेखा देखी जाती है। इस प्रकार के विषय को सुनकर रुद्रदत्त - सुत विचार किया कि निश्चय ही मेरी पत्नी भी स्वर - लक्षण को जाननेवाली थी। तभी तो उसने उस गायक की उरु रेखा आदि बतादी। तब वह विलाप करने लगा हाय! हाय! मैं कितना कठोर हूँ। क्रूर बुरे पति की तरह मैंने बिना विचारे अपने अनार्यपने का आचरण किया। उस अगाध प्रेम वाली निरपराधिनी पत्नी को भी मैंने ईर्ष्यालु होकर पाप पूर्वक उसे एकाकी छोड़ दिया। हाथ में आये हुए रत्न को भी मैंने निर्भाग्य के कारण हार दिया । मुझ स्त्रीहत्या पापी को मृत्यु बिना शुद्धि नहीं है । उसके इस विलाप को सुनकर प्रवर्तिनी ने कहा- वह नर्मदा सुन्दरी निश्चय जीवित है, और वह मैं ही हूँ। मैं इस-इस प्रकार से यहाँ आयी। मैंने अब चारित्र ग्रहण कर लिया है। अतः भद्र! तुम विलाप मत करो। अब तुम मेरे भाई हो। तुम भी अब शुद्ध संयम रूपी वारि के द्वारा पाप रूपी मल का प्रक्षालन करके भवो भव में निर्मल आत्मा बनों। महेश्वरदत्त ने सारा वृतान्त सुनकर हाथ जोड़कर मस्तक से लगाकर अतिशय विनयपूर्वक कहा शुद्ध शीलवती होते हुए भी मेरे द्वारा आपको घोर दुःख के सागर में फेंक दिया गया। हे महाभागे ! मुझ पापी को क्षमा करो। क्षमा करो। उसने कहा 166 - • तुम दुःख मत करो। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। तुम तो निमित्त मात्र हो । मैंने तो अपने
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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