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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नर्मदासुंदरी की कथा इन्द्राणी के रूप को भी फीका करती है। मैं क्या वर्णन करूँ। उसने कहा - अगर ऐसा है और तू उसे यहाँ ले आयी तो मैं तेरे घर में रत्नों का ढेर लगा दूँगी। दासी ने कहा - मैं ज्यादा क्या कहूँ। उसके जैसी दूसरी कोई हो ही नहीं सकती। हरिणी के मन में यह सुनकर उसके लाभ की लालसा जाग उठी। फिर उत्पन्न मति से विचारकर उसने एक उपाय खोजा और वीरदास से कहा - हे सुभगाग्रिम! आपकी यह रत्नमुद्रा अद्भुत है। मुझे कुछ क्षणों के लिए अर्पित करें ताकि मैं भी इसके जैसी अंगूठी अपने लिए करवा सकूँ। वीरदास ने मुद्रिका सहज भाव से उसे दे दी। उसने भी प्रच्छन्न भाव से वह मुद्रा अपनी दासी को दी। दासी समझ गयी। उसने शीघ्र ही जाकर नर्मदा से कहा - हे भद्रे! तुम्हें वीरदास बुला रहा है। अतः आओ! मुझ पर विश्वास करने के लिए उसने तुम्हें यह मुद्रा रत्न भेजा है। वीरदास के नाम से अंकित मुद्रारत्न को देखकर वह बिना विचारे उस दासी के साथ उसके घर चली गयी। पीछे के द्वार से उसे अन्दर ले जाकर भूमिग्रह में उसे रखा। वीरदास की मुद्रा उसे वापस लौटा दी। वीरदास अपने स्थान पर लौटा, तो उन्होंने नर्मदा को वहाँ नहीं पाया। उन्होंने अन्यत्र वन, देवकुल आदि में उसे खोजा। वहाँ भी न पाकर दुःखी होते हुए उन्होंने विचार किया कि किसी ने मेरे रहते हुए भी उसका हरण कर लिया है, पर मेरे भय से प्रकट नहीं करेगा। अतः मैं यहाँ से चला जाता हूँ, जिससे वह उसे प्रकट करेगा। इस आशय से वह तैयार होकर अपने घर की ओर मुड़ गया। सैकड़ों जनों से आकुल-युक्त, भरुकच्छपुर को जहाज प्राप्त हुआ। वहाँ उसका मित्र परमार्हती श्रावक जिनदेव था। उसने जिनदेव को संपूर्ण वृतान्त बताकर कहा - हे मित्र! तुम वहाँ जाओ तथा किसी भी तरह से उस बाला को खोजकर यहाँ लाओ। वह भी उसकी बात स्वीकार करके संपूर्ण सामग्री तैयार करके उसकी भतीजी को अपनी ही पुत्री मानता हुआ मित्र वत्सल भाव से वहाँ गया। वीरदास ने नर्मदा की सारी घटना नर्मदापुर पहुँचा दी। यह सुनकर उसके सारे स्वजन शोक सागर में निमग्न हो गये। इधर हरिणी ने वीरदास को गया हुआ जानकर दुष्ट बुद्धि से नर्मदासुन्दरी को कहा - हे नादान! वेश्यावृत्ति का पालन कर। नये-नये मनुष्यों के साथ वैषयिक सुख स्वेच्छानुसार भोग। मेरी यह सारी विभूति अब तुम्हारी है। यह सुनकर नर्मदा ने अपने हाथों रूपी पल्लवों को हिलाते हुए कहा - हे कुलटा! कुल-शील को नष्ट करनेवाले ऐसे दुर्वचन मत बोल। हरिणी ने रुष्ट होकर उसे कोडों से ताड़ित किया उसकी चमड़ी फूलकर पभराग-मणि के समान तथा किंशुक के समान लाल हो गयी। फिर वेश्या ने पूछा - हे धृष्टा! क्या अब भी मेरा कहा नहीं मानेगी। नर्मदा ने कहा - इस जन्म में तो तेरा कहना कभी नहीं मागी। तब उस दुष्टा ने अतिरुष्ट होकर उसे और ज्यादा कष्ट देना शुरु कर दिया। नर्मदा ने भी अपनी रक्षा के लिए पंचनमस्कार का स्मरण शुरु कर दिया। अदृष्ट वज्र प्रहार से आहत की तरह वह दुरात्मिका हरिणी नमस्कार मंत्र के प्रभाव से गतप्राण हो गयी। हरिणी के मरण को जानकर राजा ने मन्त्री से कहा - उसके स्थान पर किसी दूसरी स्वरूपवती स्त्री को स्थापित करो। राजा के आदेश से अमात्य हरिणी के घर आया। नर्मदा के असादृश्य रूप सौंदर्य को देखकर वह विस्मित हो गया। उसने कहा - राजा के आदेश से तुम्हें हरिणी के पद पर स्थापित करता हूँ। अपने निकलने के उपाय को जानकर उसने भी वह पद स्वीकार कर लिया। मंत्री ने उसे उस पद पर स्थापित किया एवं प्रसन्न होता हुआ चला गया। अब वह हरिणी के धन को कल्पलता की तरह दान में लुटाने लगी। उसे रूपवती तथा दानशीला जानकर राजा ने उसे बुलाने के लिए पालकी तथा कहारों को भेजा। उसे पालकी में बिठाकर जब वे मनुष्य अंतःपुर की ओर ले जाने लगे, तो उसने विचार किया कि जीते-जी तो मैं अपना शील खण्डित नहीं होने दूंगी। पर रक्षा का क्या उपाय करूँ? इस प्रकार विचार कर रही थी। तभी एक बहुत बड़ा नाला रास्ते में आया, जिसमें अत्यन्त 164
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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