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नर्मदासुंदरी की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् होओ। विलाप मत करो। कोपावेश के वश में होकर मैंने तुम्हें शाप दिया था। तुम्हारे विनय रूपी जल के द्वारा मेरी क्रोधाग्नि अब शान्त हो गयी है। बिना जाने दिया हुआ मेरा शाप तुम्हारा भावी है। हे भद्रे! यह भवान्तर में तुम्हारे द्वारा बाँधे गये निकाचित कर्मों का विपाक है। अतः चिर काल तक प्रिय के वियोग का अनुभव तुम्हें करना ही पड़ेगा। अपने द्वारा कृत कर्म भोगे बिना नहीं छूटते। कहा भी गया है -
हसद्धिर्बध्यते वत्से! पापकर्म यदङ्गिभिः । निस्तीर्यते रुदद्धिस्तन्निश्चयोऽत्र न संशयः ।।
हे वत्से! जीवों द्वारा जो पाप कर्म हंस-हंसकर बाँधे जाते हैं, निश्चय ही वे रो-रोकर भोगे जाते हैं। इसमें कोई संशय नहीं है।
अतः परमार्थ को जानकर मुनि को वन्दन करके वह भवन में चली गयी। संपूर्ण वृतान्त पति को रोते हुए बताया। उसने भी आश्वासन देते हुए कहा - देवी! रोती क्यों हो? अशुभ कर्म की शान्ति के लिए जिनपति की अर्चना आदि करो। गुरु के उपदेश की तरह वह भी उसके वचनों को स्वीकार करके वैषयिक सुख को छोड़कर विशेष रूप से धर्म में रत बन गयी।
इस प्रकार समय बीतने लगा। एक बार नर्मदा सुन्दरी का पति अपने मित्रों के साथ गोष्ठी में बैठा था। उसके मित्रों ने उससे कहा - मनुष्यों के वैभव के उपार्जन का काल यौवन होता है। वह यौवन हम में आ चुका है। अतः पिता के अर्थ का भोग करना आर्य लोगों के लिए उचित नहीं है। अतः यवन द्वीप जाकर हम प्रचुर धन का उपार्जन करें तथा स्वेच्छापूर्वक विलास-क्रीड़ा करें। यह सुनकर वह भी तैयार हो गया।
उसने माता-पिता को प्रयत्नपूर्वक समझाकर उस द्वीप के योग्य माल आदि संपूर्ण सामग्री तैयार की। उसने नर्मदा सुन्दरी से कहा - प्रिये! तुम यहीं रहो। मैं समुद्र पार जाऊँगा। तुम्हारा शरीर मार्ग के दुःख को झेलने के लिए अति सुकुमार है। तुम नित्य देव गुरु की उपासना करते हुए सुख को प्राप्त करना। उसने कहा - हे वल्लभ! इस प्रकार के वचन मत बोलो। मैं आपकी विरह व्यथा सहने के लिए यहाँ रुकनेवाली नहीं हूँ। आपके साथ से मैं उस सुखाकर रूप कष्ट को भी सहन कर लूँगी। पर चन्द्रमा की चाँदनी की तरह आप ही का अनुगमन करूँगी।
तब उसको लेकर वह महासार्थ के साथ निकला। समुद्र के पास जाकर सार्थ भी जहाज पर आरुढ़ हुआ। अनुकूल हवा के संयोग से समुद्र में प्रीतिपूर्वक जाते हुए जहाज में किसी ने अति मधुर स्वर में गाना आरंभ किया। यह सुनकर स्वर-लक्षण के मर्म को जाननेवाली नर्मदा प्रसन्न हुई। उसने कहा - हे कान्त! इस गायक की छवि शरीर का वर्ण वृषभ जैसा है। बर्बर देश का निवासी यह साहसी तथा रण में दुर्जय है। इसका वक्षस्थल उन्नत है। मोटे-मोटे हाथ तथा बत्तीस दाँत हैं। इसके उरु में एक श्यामल रेखा है तथा गुप्त स्थान में लाल रंग का मस है। यह सुनकर नर्मदा के पति ने विचार किया कि क्षण भर में ही उसकी प्रिया उस गायक में प्रेममय हो गयी है। निश्चय ही यह इसके साथ रही हुई है, अन्यथा इस प्रकार की बातें कैसे जानती है। निश्चय ही यह तो असती है। इसने दोनों कुलों को कलंकित किया है। मेरे हृदय में तो यह धारणा थी कि मेरी प्रिया तो महासती व जैनी श्राविका है। अगर यह भी असती है तो सतीव्रत तो निराधार ही हैं। तो क्या मैं इसे समुद्र में फैंक दूं या फिर छुरि से मार डालूँ, अथवा सबके बीच जाहिर करके मार डालूँ या फिर इसकी गरदन मरोड़ दूं? वह इस प्रकार से अनेक प्रकार के मिथ्या विकल्पों का विचार कर ही रहा था, तभी पोत के अग्रभाग में रहे हुए मनुष्य ने कहा - हे भद्रों! इस राक्षस द्वीप से नीर-इन्धन आदि ग्रहण कर ले। उन्होंने भी यान के पात्रों को उसके वचनानुसार धारण किया। सभी ने उस द्वीप को देखते हुए जल व इंधन भरना शुरु कर दिया।
तब महेश्वरदत्त ने भी अपनी भार्या नर्मदा को मायापूर्वक कहा - हे सुन्दरी! यह द्वीप अति रम्य है। अतः उतर
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