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________________ चंदनबाला की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् ही इसकी चिकित्सा हो जानी चाहिए। बाद में तो असाध्य रोग हो जाने पर किया गया प्रयत्न भी निष्फल हो जायगा। इस प्रकार मन में विचार करके मूला सेठानी बिल्ली की तरह कुबुद्धि से स्थिरता-प्रधान चेष्टा विशेष की रचना करने लगी। मुहूर्त भर विश्राम करके श्रेष्ठि तो घर से चले गये। मूला ने भी नाई को बुलवाकर चन्दना का मुण्डन करवा दिया। पाँवों में बेड़ियाँ डालकर उसे कारावास के समान एक कमरे में बन्द कर दिया। उसके द्वार पर ताला लगाकर अपने दास-दासियों को कहा - अगर किसी ने श्रेष्ठि को चंदना के बारे में बताया, तो उसका भी मैं यही हाल करूँगी। श्रेष्ठि ने घर आने पर पूछा - चन्दना क्यों नहीं दिखायी दे रही है? पर मूला सेठानी के भय से कोई भी कुछ नहीं बोला। क्योंकि - कः खलीकुरुते यमम् । अर्थात् यम की अवज्ञा कौन करे? श्रेष्ठि ने भी सोचा - मेरी पुत्री कहीं किसी के साथ ऊपर पढ़ - गुण रही होगी या खेल रही होगी। इस प्रकार श्रेष्ठि ने घर आकर बार-बार सभी से पूछा, पर तीन दिन तक किसी ने भी चन्दना की घटना श्रेष्ठि को नहीं बतायी। चौथे दिन भी चन्दना के दिखायी न देने पर शंका तथा कोप से आकुल होकर श्रेष्ठि ने परिजनों को कहा - जगत् को आनन्द देने वाली मेरी चन्दना कहाँ है? अगर किसी ने जानते हुए भी नहीं बताया, तो मैं उसका निग्रह करूँगा। ___ यह सुनकर एक वृद्धा दासी ने विचार किया कि मैंने चिर काल तक जीवन जी लिया। अब मेरी मृत्यु निकट है। जाते हुए प्राणों द्वारा दूसरों का उपकार करके जो निर्मल धर्म व कीर्ति को अर्जित करते हैं वे धन्य हैं। अतः मेरे जीवितव्य से यह (चंदना) जीवित रहो। (मेरी मृत्यु हो जाय तो भी नुकशान नहीं, चंदना जीवित रहनी चाहिए।) इस प्रकार विचार करके उसने श्रेष्ठि को मूला के द्वारा चंदना की विडंबना की सारी बातें करके चंदना का कारावास का स्थान दयाई होकर बता दिया। तब व्याकुल होकर श्रेष्ठि ने उसका द्वार खोला। वहाँ उसने नूतन क्षुल्लिका की तरह मुण्डित, सूर्य से मुरझित मालती की तरह क्षुधा-तृषा से म्लान मुखवाली, दुश्मन की तरह बन्दी बनायी हुई, पाँवों में बेड़ी डाली हुई, आँसूओं से भूमि को कर्दम-युक्त करती हुई चन्दना को देखा। आँखों में आँसू भरकर वह दयानिधि चन्दना को आश्वासन बंधाकर उसके लिए भोजन लाने के लिए शीघ्र ही रसोईघर में गया। उसके दुःख से दुःखी बने हुए सेठ को वहाँ कुछ भी वैसा भोज्यपदार्थ दिखायी नहीं दिया। एक सूपड़े में उड़द के बाकले रखे हुए थे। उसे देखकर पुत्री को वह सूप पकड़ाया एवं कहा - वत्से! तुम यह खाओ, तब तक मैं लुहार को लाकर तुम्हारी बेडियाँ कटवाता हूँ। यह कहकर वह घर से निकल गया। चन्दना ने विचार किया - अहो! दैव! राजकुल में जन्म देकर इस प्रकार की दुर्दशा क्यों? नाटक के समान क्षण-क्षण में आपत्तियों का रूप बदलता रहता है। अथवा यह भी आँखों से देखी हुई नष्ट ऋद्धि के समान स्वप्न या इन्द्रजाल है? मेरे कुटुम्ब की दुरवस्था करके फिर मेरी माता से मुझे विलग किया। और अब सर्वदुःखों में चूलिका स्वरूप यह दासी भाव प्राप्त हुआ। इस प्रकार दुःख रूपी समुद्र में मग्न होती हुई, रोते हुए, अश्रु जल से प्लावित मुख द्वारा उसने पुनः विचार किया - अपने घर में तो मैं एकासन के पारणे पर भी भक्तिपूर्वक चतुर्विध संघ को प्रतिलाभित करके फिर खाती थी। पर इस समय तो तेले का पारणा होने पर भी इस दुर्दशा के वश में मजबूर होकर मैं निष्पुण्यशालिनी बिना किसी के संविभाग के पारणा करूँगी। पात्र में दान देने के लिए भूख से आर्त होने पर भी अनाकुल होकर दान रूपी श्रद्धा से महाभागी बनी वह 155
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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