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________________ चंदनबाला की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् था। वहाँ पुष्पों की सुरभि से युक्त अथवा पशुओं की समृद्धि से वासित स्निग्ध, मनोहर वर्ण वाली हरिणी के के समान भूमि वाली चम्पक माला की तरह चम्पा नामक नगरी थी। उस नगरी में सैन्य रूपी सागर से युक्त दधिवाहन नामक राजा था। जिसका यश सागर पूरे ब्रह्माण्ड में बुदबुदाता था। उसकी वल्लभा धारिणी, अतुलनीय, अमूल्य, शील का महा अलंकार धारण करने वाली शुद्ध सम्यक्त्व की धारिका थी । एक दिन उसने रात्रि में सोते हुए एक स्वप्न देखा कि उसके आँगन में एक दिव्य कल्पलता देवलोक से आकर अवतीर्ण हुई। जागृत होकर देवी ने वह स्वप्न अपने पति को बताया। उसने भी स्वप्न पाठक की तरह एक अति उत्तम पुत्री का लाभ बताया। तब गर्भ का वहन करते हुए रानी धारिणी ने समय आने पर द्वितीया के चन्द्र की तरह शुक्ल पक्षिणी आनन्दकारिणी पुत्री को जन्म दिया। महोत्सव पूर्वक उसका नाम वसुमती रखा गया । क्रम से सिंची हुई लता की तरह वह कांति आदि से बढ़ती गयी। - उधर वत्सदेश में कौशाम्बी नाम की नगरी थी । वहाँ शत्रुओं को भय उत्पन्न करनेवाला शतानीक नामक राजा राज्य करता था। कमल के भ्रम से आये हुए भँवरों के समूह की तरह सरोवर रूपी समरांगण में कर रूपी कमल में तलवार रूपी भँवरे शोभित होते थे । चेटक राजा की पुत्री मृगावती उसकी रानी थी । अप्सरा के रूप को तिरस्कृत करनेवाली, सतियों में वह शिरोमणी थी। एक बार शतानीक कौशाम्बी से निकलकर क्षणों में ही नौका के सैनिकों के साथ सहसा विद्युत्पात की तरह अज्ञात रूप से चम्पा में आ गया। चम्पा का राजा दधिवाहन उसको सहसा आया हुआ देखकर भाग गया। कहा भी गया है अपचितः पराक्रान्तः कुर्यात् किं सबलोपि हि । दूसरे से आक्रान्त, नाश को प्राप्त सबल भी क्या कर सकता है? सेना के मध्य में शतानीक ने स्वयं ही जय की घोषणा कर दी। उसके सैनिकों द्वारा चारों ओर से चम्पानगरी लुटी जाने लगी। दधिवाहन की पत्नी धारिणी अपनी पुत्री के साथ पिता के घर की तरफ जाती हुई किसी रथिक के द्वारा पकड़ ली गयी। सेना द्वारा सर्वस्व लूटे जाने पर हर्षित होता हुआ शतानीक अपनी राजधानी आया और अपनी जीत का मंगल उत्सव किया। रथिक ने तो पृथ्वी पर इन्द्राणी के समान धारिणी को पाकर अपने मित्र आदि से कहा- मैं इसे अपनी प्रिया बनाऊँगा। इसकी पुत्री को बेचकर विपुल धन प्राप्त करूँगा । अहो ! मुझे मृत्युलोक में भी स्वर्ग प्राप्त हो गया है। यह सुनकर धारिणी ने विचार किया- मैंने पवित्र कुल में जन्म लिया है। शुद्ध वंश के दधिवाहन राजा की पत्नी हूँ । पर हा! देव! मेरी यह दुःखित अवस्था कैसे हुई? इसके अप्रिय शब्दों रूपी भाले से मैं बिंध गयी हूँ। हे जीव ! असमय को जान! क्या दुःख सहने के लिए जिन्दा रहूँ? जिस प्रकार गाय, अश्व, पुरुष व पशु को बार-बार ले जाने वाला यमराज दारु से दुर्मदी बने हुए की तरह तृप्त नहीं होता, उसी प्रकार तपस्या से दुष्कर्म की तरह तथा क्षमा से क्रोध की तरह जाओ - जाओ कहने से यह मेरे द्वारा बलपूर्वक नहीं निकाला जा सकेगा। अपमान व तिरस्कार से पथराये हुए उसने अपने वक्ष में कटार भौंककर अपने प्राण त्याग दिये । धारिणी को मरी हुई देखकर उस रथिक का हृदय काँप उठा। हा! हा! मेरे द्वारा इस महासती को अयुक्त वचन कहा गया। सत्यो हि शीलभङ्गस्य क्षमन्ते न वचोऽपि हि । सत्यवादी के लिए वचन मात्र से शील भंग होना भी असहनीय होता है। यह सत्य मैंने पहले सुना था, पर आज देखा है। तब वसुमति माता के शोक में विह्वल होकर बार-बार रोती हुई बार-बार मूर्च्छित सी होने लगी। विलाप करने लगी- हा दैव ! हा निष्ठुर! मुझ शिशु को भी एक के ऊपर एक 153
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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