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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् मूलदेव की कथा ऐसा लगता था, मानो यहाँ के लोग स्वभाव से ही धर्म श्रद्धालु हैं। वहाँ पाटलि के पुष्प के समान पाटलिपुत्र नामका नगर था, जो स्निग्ध वर्ण वाला, महा प्रसन्नता से युक्त सदा भंवरे की प्रियता को प्राप्त करने वाला था। वहाँ शंख से उज्जवल यश वाले शंखधवल नगर में कोई नया राजा हुआ। सर्व स्त्रियों में शिरोमणि जयलक्ष्मी के समान अंगवाली उसकी जयलक्ष्मी नामकी अग्रमहिषी थी। बहत्तर कला से युक्त शास्त्रों के गूढ रहस्यों को जानने के कौशल से उज्ज्वल बत्तीस लक्षणों से युक्त मूलदेव नामका पुत्र था। वह धूर्तविद्या में कुशल, दीन तथा अनाथों के अनुकुल, कूटनीति में धृष्ट, वीरचर्या में साहसी, साधुओं के बीच महासज्जन, तस्करों में महा-तस्कर, कुटिल लोगों में महा कुटिल व सरल आत्माओं के साथ सरल था। सैनिकों के समूह के बीच सैनिक, और कायरों में कायर, पण्डितों में पण्डित, शिकारियों में शिकारी, मूों में मूर्ख, जुआरियों में जुआरी, मान्त्रिकों में मान्त्रिक था। इस प्रकार वर्षा से गिरते हुए जल की तरह विभिन्न पात्रों में तदनुरूप आकार धारण कर लेता था। विचित्र कोतूहल से युक्त सर्वांगीण गुण समूह से युक्त होने से न तो उसे कोई अप्रिय था, न वह किसी को अप्रिय था। इन गुणों की खान होने पर भी चन्द्रमा में कलंक की तरह मूलदेव को जुए में अति आसक्ति थी। द्यूत के व्यसन में आसक्त होकर ज्य-क्रियाओं में भी रूचि नहीं लेता था। यह जानकर राजा ने उसे अपने पास बलाकर शिक्षा दी-वत्स! पर्व में भी तीन खण्ड के अधिपति राजा नल ने अन्तःपुर सहित अपने विशाल राज्य को जुए में हार दिया था। शिकारी की तरह वन-वन भटकते हुए उसने दधिपर्ण राजा के यहाँ सूपकार का कार्य भी किया। इस जुगार के प्रसाद से अर्जुन, भीमादि के सदृश भाइयों के होते हुए भी राजा युधिष्ठिर राज्य भ्रष्ट होकर श्रीकृष्ण की सन्निधि में गये। भारत की योग्यता के शिरोमणि जुए से भ्रष्ट राज्य वाले राजा युधिष्ठिर विराट राजा के पास कङ्क भट्ट के रूप में रहे। उनका भाई भीम रसोईये के रूप में, अर्जुन चारण के रूप में, सहदेव दूध के अधिकारी के रूप में तथा नकुल अश्व को दमन करने वाला बना। दुःख के स्थान रूप द्यूत-व्यसन में आसक्त चित्त वालों की यह प्रत्यक्ष कथा है, तो दूसरों का तो कहना ही क्या! अतः हे वत्स! इस जुए का सर्वथा त्याग कर दो। यह इसलोक व परलोक में केवल दुःख का हेतु है। इस प्रकार शिक्षा देने पर भी उसने जुए का परित्याग नहीं किया। कामिनी में रत कामुक की तरह वह जुए में एकान्त रूप से लीन हो गया। तब राजा ने अभीष्ट होते हुए भी पुत्र को निकाल दिया। कहा भी है सुवर्णेनापि किं तेन कौँ त्रोटयतीह यत् । ऐसे स्वर्ण से क्या जो कानों को चोट पहुंचाता हो? उधर अवन्ती देश के मस्तक को अलंकृत करने वाली स्वर्गपुरी की सखी के समान उज्जयिनी नाम की नगरी थी। वहाँ शत्रु रूपी हाथियों के बीच केशरी के समान जितशत्रु राजा राज्य करता था। वह गुणरत्नों की खान था तथा प्रार्थियों के लिए कल्पवृक्ष के समान था। वहाँ देवदत्ता नामकी एक वेश्या थी। वह कला गुण की परीक्षा में साक्षात् वागेश्वरी थी। वह रूपलता नारियों में अग्रिमपंक्ति मे थी। लावण्य रूपी समुद्र की तरंगिणी थी। वह मीनध्वज (कामदेव) राजा की राजधानी के समान चलती थी। स्वेच्छापूर्वक चलते हुए जिसके कटाक्ष देखते ही मन हर लेते थे। कामियों द्वारा उसको देखते ही उनके चित्त का हरण हो जाता था। रति-सुख की निधि स्वरूप उसका क्या वर्णन किया जाय? तीन जगत् में कोई भी वस्तु उसकी उपमा के लायक नहीं थी, बल्कि वह सब की उपमा स्वरूप थी। वहीं पर अचल नाम का महाऋद्धिवान सार्थवाह भी रहता था। वह निस्पृह होकर प्रार्थियों को त्यागपूर्वक चिन्तित रत्न आदि देता था। उसके यहाँ सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त आदि रत्नों के ढेर अपनी-अपनी ऊंचाइयों से रोहिणी पर्वत से स्पर्धा करते थे। संपूर्ण रूप, लावण्य, सौभाग्य आदि गुणों से ग्रहित अंग वाला यह मदन देव के समान कामिनियों द्वारा प्रार्थित रहता था। 140
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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