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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् शिवकुमार की कथा रूप से करने पर जैसे धर्म बढ़ता जाता है, वैसे ही राजपुत्र भी क्षण-क्षण में अधिकाधिक वृद्धि को प्राप्त होता गया। कला-शिक्षा आदि का समय होने पर बालक होते हुए भी उस राजपुत्र ने कलाचार्य के पास सारी कलायें ग्रहण की। क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होता हुआ कुमार शरीर से तरुण, मन से करुण और वचन से चतुर हुआ। उसी के अनुरूप, मानों उसी के लिए बनी हो ऐसी अनेक कोमल कन्याओं के साथ राजा ने कुमार का पाणिग्रहण करवाया। उन सभी के साथ स्वेच्छा पूर्वक क्रीड़ा करते हुए वह क्रीड़ा-विचक्षण कुमार इन्द्र के समान इच्छित सारे सुखों का अनुभव करने लगा। एक दिन शरद्काल में अपनी प्रेयसी-स्त्रियों के मध्य हथिनी की लीला में रमण करते हुए अपने महल के अग्र भाग में दैदीप्यमान रत्नों के समूह रूप रोहणाचल पर्वत के समान बहुत सारे बादलों के पंचवर्णी समूह को देखा। उसने उस ओर मुँहकर उस मेघवृन्द को कौतुक से ऊपर जाते हुए देखा। आकाश को विचित्र चित्रों से युक्त वह एकटक देखने लगा। उसके देखते ही देखते वे सारे विचित्र चित्र जल्दी से विलीन भी हो गये। ऐसा लगता था कि मानो यहाँ कुछ हुआ ही न हो। उस कुमार ने उस नष्ट हुए अभ्र-वृन्द को देखकर विचार किया कि संसारचक्रेऽस्मिन् भावीः सर्वे विनश्वराः । नष्ट हुए बादलों की तरह इस संसार चक्र में भी सभी भाव विनश्वर है। अतः विवेकी-जनों को उनमें कुछ भी आसक्ति नहीं करनी चाहिए। परम सुख की उपमा से युक्त मुक्ति की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं है। इस प्रकार विचार करते हुए उत्पन्न वैराग्य युक्त भावभंगिमा के कारण उसके कमल से मुख को उदास देखकर प्रणयपूर्वक उसकी प्रियाओं ने कहा-अर्द्धक्षण में ही हे स्वामिन्! आप उद्विग्न हो गये है। आप में इस तरह का परिवर्तन किस कारण से हुआ है? ____ कुमार ने कहा-हे कान्ता! जल के बुदबुदों के समान बादलों के समूह के प्रकट होने व विलीन हो जाने को देखकर मैं विचार में पड़ गया हूँ कि किस दिशा में जाऊँ? क्योंकि इन बादलों की तरह मेरा यह शरीर, यह भवन आदि सब कुछ एक दिन चला जायगा। अतः इस असार व घातक शरीर तथा घर के ममत्व बंधन को छोड़कर चारित्र ग्रहण करूँ, जिससे मेरा यह जन्म सफल हो जाय। यह सुनकर उसकी प्रियाएँ भी लघुकर्मी होने से बोलीहे कान्त! फिर देर किस बात की। हम भी आपका अनुगमन करेंगी। जो मोक्ष रूपी कल्याण को चाहनेवाली धीर शालिनी आत्माएँ होती हैं, वे संसार के स्वरूप को जानकर रागादि बन्धनों को तोड़कर अपने शरीर में भी निस्पृह रहते हुए तपस्या से भावित होती हैं। तब अपनी प्रियाओं की अनुमति पाकर विशेष उद्यम करते हुए व्रत ग्रहण करने के लिए उस विवेकी कुमार ने माता-पिता को प्रतिबोधित करके अत्याग्रह किया। फिर सागर-कुमार ने महा-प्रभावनापूर्वक प्रियाओं के साथ अमृतसागर आचार्य की सन्निधि में व्रत ग्रहण किया। गुरु की सानिध्यता में उभय शिक्षाओं को पढ़ते हुए मुनि सागरदत्त समस्त श्रुत सागर में पारंगत हो गये। तपस्या द्वारा कर्मों का क्षय करते हुए अतीन्द्रिय अर्थ को प्रकट करने वाला अवधिज्ञान उन्हें उत्पन्न हुआ। भू-मण्डल पर विचरण करते हुए भव्य जीवों को प्रतिबोधित करते हुए यहाँ आनेवाला मुनि वह मैं ही हूँ। भवदत्त के अनुज भवदेव का जीव तुम्हारे रूप में शिव नामक राजपुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है। हे शिव! पूर्व भवों में हम दोनों भाई थे। जीवन भर हम दोनों में अपूर्व स्नेह था। ऐसा स्नेह, जो अन्य किसी में नहीं हो सकता। सौधर्म देवलोक में भी हम दोनों साथ-साथ देवरूप में रहें। वहाँ देवभव में भी हमारी परस्पर प्रीति वाणी का विषय नहीं बन सकती। इस भव में मैं व्रत में स्थित होकर शत्रु-मित्र पर समभाव धारण करता हूँ और तुम पूर्वभव के स्नेहाभ्यास से मुझ पर अत्यधिक स्नेह रखनेवाले गृहस्थ हो। 122
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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