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________________ चण्डकौशिक की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् उसे नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है। तब वह भी क्रोध से जलता हुआ परशुराम की तरह हाथ में फरसा लेकर उन क्षत्रियों के वध के लिए उद्यमवान होता हुआ दौड़ा। जैसे बाघ को देखकर सियार भाग जाते हैं, वैसे ही संहार में उद्यत रुद्र की तरह उसको देखकर वे सभी राजपुत्र भाग गये। उनके पीछे-पीछे दौड़ते हुए स्खलित होकर गड्ढे में गिर जाने से अपने ही फरसे से सिर दो भागों में कट गया और मृत्यु को प्राप्त हुआ। वनखण्ड की मूर्छा के पूर्वाभ्यास के कारण अत्यन्त क्रोधित भाव में मरकर वह वहीं दृष्टिविष सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। तापस चण्डकौशिक को मरा हुआ जानकर पुनः अपने आश्रम में आ गये। क्योंकिस्थानमोहो न कस्य वा । स्थान का मोह किसको नहीं होता। उस नाग ने घूमते हुए वहाँ पक्षी आदि को देखा। सभी को कोप भरी दृष्टि से देखकर भस्मसात कर दिया। तापसों में भी जो उसके सामने आ गये, उन्हें दृष्टि से भस्मीभूत कर दिया। दूसरे तापस तो अपना जीवन बचाते हुए अन्यत्र पलायन कर गये। उस नाग ने बारह योजन तक के वनखण्ड को खाली करवाकर अर्थात् सर्वप्राणियों से रहित करके उसको तीन बार परिक्रमा करके फिर अपने बिल में चला गया। छभस्थ भगवान महावीर उसे बोध योग्य जानकर लोगों द्वारा मना किये जाने पर भी उस आश्रम में आयें। उस चण्डकौशिक पर उपकार करने की भावना से अपनी पीडा की अवहेलनाकर उसके बिल के समीप के मण्डप में प्रतिमा में स्थित हो गये। भगवान के शरीर की गन्ध से प्रभावित होकर दुर्धर क्रोध से फुफकारते हुए यमराज जैसी काली त्वचावाला, कालरात्रि के समान जीभवाला, पृथ्वी पर चोटी की तरह एवं यमुना के प्रवाह की तरह लहराता हुआ वह दृष्टिविष सर्प दर्प से भरा हुआ बिल से बाहर निकला। श्री महावीर को देखकर क्रोधोद्धत सर्प ने विचार किया-ओह! क्या यह मुझे नहीं जानता था अपने घमण्ड के कारण मेरी अवज्ञा कर रहा है। तो फिर इस दुष्ट बुद्धिवाले को अभी भस्म करता हूँ। फिर उसने फन उठाकर फुत्कारपूर्वक प्रभु को देखा और देखता ही रह गया। लेकिन उसके दृष्टि विष का तेज भगवान पर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सका। वार्द्धिशोषक्षमः किं स्यात् प्रौढोऽपि वडवानलः ? प्रौढ वड़वानल भी क्या समुद्र को सूखा सकता है? पुनः-पुनः देखकर फिर उसने अत्यधिक तेज दृष्टि के साथ प्रभु को देखा। परन्तु वह दृष्टि ज्वाला भी भगवान के समीप पहुँचकर कमल की नाल की तरह नरम पड़ गयी। तब वह प्रभु को क्रोधपूर्वक देखकर उनके पैरों में डंक मारकर शीघ्र ही यह सोचकर चला गया कि विष के आवेग से मूछित होकर कहीं यह मुझ पर ही न गिर पड़े। बार-बार डंसने पर भी प्रभु को कोई विष जन्य दर्द नहीं हुआ, किन्तु जिस पाँव पर डंक मारा था, उस पाँव से रक्त की जगह दूध की धारा बहते हुए देखी। तब उस प्रकार के प्रभु के अतिशय को प्रत्यक्ष देखते हुए चण्डकौशिक का क्रोध-ज्वाला शांत हो गयी। उसे उपदेश के योग्य जानकर प्रभु ने उसको कहा-जागो! जागो! चण्डकौशिक! मोहित मत बनो। प्रभु के वचनों को सुनकर ऊहा-अपोह आदि क्रियाओं में युक्त होते हुए क्षपक के जन्म तक का जातिस्मरण ज्ञान उसे उत्पन्न हुआ। तब उस वृत को जानकर वैराग्ययुक्त होते हुए नाग ने प्रभु की प्रदक्षिणा करके, भक्तिपूर्वक प्रणिपात करके, कषायों से निवृत्त होकर, संपूर्ण दुष्कृतों की गर्दा करके, तिर्यंचयोनि में होने से, सर्वचारित्र के अयोग्य होने से, दृढ़ सम्यक्त्व धारण करके, बारह व्रतों को ग्रहण करके, भगवान की साक्षी से अनशन स्वीकार किया। ___ उसने विचार किया कि दृष्टि विष के दोष से प्राणी मृत्यु को प्राप्त करेंगे, तो मेरे पहले व्रत में दोष लगेगा। अतः सर्वदिशाओं से विरति करके, योगों का निरोध करके बरसात के जल की भी याचना न करने के समान बिल 115
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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