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________________ चण्डकौशिक की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् भ्रातरिष्टयोगो हि तोषकृत्। भाई का इष्ट संयोग ही संतोष प्रद होगा। गोभद्र ने कहावैराद् भवपरम्परा । वैर से भव परम्परा बढ़ती है। उसने कहा- हे भाई! यही मार्ग तुम अपने मित्र को भी क्यों नहीं दिखाते? - तुम्हारी बहन द्वारा यह प्राणिघात का कार्य योग्य नहीं है। क्योंकि उससे वैर पैदा होता है और गोभद्र ने कहा- उसे भी समझाकर मित्रता निभानी है। तब चन्द्रकान्ता व चन्द्रलेखा गोभद्र के साथ उस प्रकार से बाँधे हुए विद्यासिद्ध को दिखाने के लिए आयी। तब मुमुक्षु की तरह उसके समस्त बंधनो को टूटा हुआ देखकर विस्मित होते हुए भयभीत हो गयी। विद्यासिद्ध ने भी गोभद्र को देखकर मानो अभी ही देखा हो इस प्रकार पूछा- हे मित्र ! क्या तुम भी मेरी तरह इन दोनों द्वारा छल से लाये गये हो? तब गोभद्र ने उसे रोककर एक जगह बैठाकर प्रौढ़ आचार्य की तरह उसे कषाय-फल की देशना देनी शुरु कर दी। अहो ! अद्वैत योद्धा की तरह क्रोध समस्त कषायों में मुख्य है। जिसे क्रोध आता है, उसका सब कुछ जड़ से उखड़ जाता है। क्रोध के फल को जाननेवाला उस पाप की निन्दा करता है । वह समुद्र की भांति वर्षाजल गिरनेपर भी बहुत शांत रहता है । नीच लोगों का यही व्यवहार है कि अपकार करनेवाले पर पुनः अपकार ही करते हैं, पर सज्जन व्यक्ति अपकारी पर भी उपकार करनेवाले होते हैं। तभी तो नीच व उत्तम रूप से मनुष्यों की भिन्नता है। अन्यथा तो समस्त वस्तुओं के एक रूप होने से उसकी अनेक नाम्यता नहीं होती। ज्यादा क्या कहूँ! अगर आत्मा का वास्तविक कल्याण चाहते हो, तो मिथ्या दुष्कृत देकर परस्पर दुराशय का त्याग करो । गुरु- आदेश की तरह उसके वचनों पर श्रद्धा करके उन दोनों ने वास्तविक रूप से भाई-बहन के समान प्रीति कर ली । विद्यासिद्ध गोभद्र को वरदान माँगने के लिए कहा तो उसने कहा- बस यही चाहता हूँ कि तुम परस्त्रीगमन का त्याग करके इससे विरत हो जाओ। क्योंकि परस्त्रीसङ्गमो ह्यत्र परमं वैरकारणम् । आवासोऽनर्थसार्थानां राजमार्गश्च दुर्गतेः ॥ परस्त्री का संगम यहाँ परम वैर का कारण है। यह अनर्थों के भण्डार का घर है, और दुर्गति का राजमार्ग है। हे बन्धु! यह दुर्विनय पराभूति का परम स्थान है। यह जन्मभूमि में अकीर्ति करनेवाला तथा पापपंक की खाई है। जिसने परस्त्रीगमन का त्याग किया, वे सुदर्शन आदि मुक्ति को प्राप्त कर गये तथा जिसने इसे नहीं छोड़ा, वे लंकेश्वर आदि की तरह अनर्थ को प्राप्त हुए । अग्नि से घृत- कुम्भ की तरह, बिल्ली से चूहे की तरह, दीपक से पंतगे की तरह, सिंह से हरिण की तरह, सूर्य से अन्धकार की तरह, साँप से मेढ़क की तरह सुखार्थी को परस्त्रियों दूर रहना चाहिए। तब वैराग्य से ओतप्रोत होकर विद्यासिद्ध ने शीघ्र ही अपने मित्र के पास परदारा परिहार व्रत अंगीकार किया। गोभद्र ने भी उससे कहा- मुझे मेरा वांछित प्राप्त हो गया । तुम्हारा भी मनुष्य जन्म सफल हो गया। अब इसे कभी मत भूलना। विद्यासिद्ध, योगिनियों के घर खाना खाकर प्रमोद भाव से योगिनियों तथा मित्र को पूछकर स्वस्थान जाने लगा । गोभद्र ने उससे कहा- भद्र! मेरे घर होते हुए चले जाना । जाकर कहना कि मैं थोड़े ही दिनों में आ जाऊँगा । वहाँ मैं तुम्हारी भाभी को गर्भवती छोड़कर आया था। पता नहीं, वह इस समय कैसी होगी ? उन दोनों योगिनियों ने कुछ दिन तक उसे आदर के साथ रखा। उसे प्रभूत द्रव्य रत्नादि दिये। फिर वह अपने घर के लिए रवाना हुआ। प्रसन्न होते हुए घर की ओर जाते हुए उसने गाँव के लोगों से सुना कि उसकी पत्नी पञ्चत्व 113
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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