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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् चण्डकौशिक की कथा पवित्र गंगा नदी के तट पर स्थित वाराणसी नगरी चले जाओ। वहाँ लोग देशान्तर से तीर्थयात्रा करते हुए आते है। वे तुम्हारे जैसे उघाड़ी हुई जंघा वाले मजाकी विप्र को बिना माँगे भी स्वर्ण-दक्षिणा देंगे। तब उसमें लिप्सावाला होकर शिवभद्रा द्वारा प्रेरित गोभद्र पाथेय साथ में लेकर काशी नगरी रवाना हुआ। मार्ग में चलते हुए अपने सामने पादुका पर आरुद, समाधि में बैठने योग्य आसन धारण किये हुए साक्षात् कामदेव के समान एक विद्यासिद्ध पुरुष को देखा। गोभद्र संभ्रमित होकर जब तक उससे बात करता, उससे पहले ही उस विद्यासिद्ध ने बातचीत शुरु करते हुए कहा-हे गोभद्र! कौशेय से वाराणसी जाने के लिए निकले हो। मेरे साथ आओ, जिससे मार्ग सरलता से तय हो जावे। गोभद्र ने उसके वचनों को सुनकर विचार किया कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं है। इसने मेरा नाम, गाँव व जाने का स्थान कैसे जाना? अतः मैं इसकी देवता, के समान भक्तिपूर्वक सेवा करूँगा। कदाचित् मेरे कार्य की सिद्धि हो जाय। इस प्रकार विचार करके विनयपूर्वक अंजलि बद्ध होकर कहा-अहो! हे अतिन्द्रियज्ञानी! आपकी सन्निधि कौन नहीं चाहेगा? इस प्रकार साथ-साथ जाते हुए वे दोनों परस्पर वार्ता करने लगे। सहोदर भाइयों के समान दोनों में स्नेह-सार बहने लगा। प्रहर दिन बीत जाने पर एक गाँव प्राप्त किया। गोभद्र ने कहा कि हे भद्र! यहाँ रुककर भोजन कर लिया जाय। उसने कहा-बन्धु! अभी तो सूर्य की किरणें कोमल है, अर्थात् धूप नहीं चढ़ी है। अतः आओ! आगे चले! आगे भी भोजन दुर्लभ नहीं है। आगे जाते हुए एक नगर समीप आया। नगर के बाहर क्षीरोदधि के समान सरोवर था। तट पर बैठे हुए धनिकों की कतारों के समान सरोवर के दोनों ओर वृक्षों की कतारें लगी हुई थीं। वहाँ सरोवर में उतरकर स्नान करके शुद्ध होकर वह ब्राह्मण तो मध्य-संध्या की अर्चना में लग गया और दूसरा अपनी समाधि में लीन हो गया। जैसे देवों के द्वारा मन में संकल्प करते ही वस्तुएँ प्रकट हो जाती हैं, वैसे ही विद्यासिद्ध ने विद्या प्रयोग से अद्भूत रसवती(रसोई) सामने मँगवायी। विद्यासिद्ध ने पहले गोभद्र को भोजन करवाया. फिर स्वयं खाया। सच ही है. ज्ञानी उचित कार्यों से यक्त होते हैं। फिर हुंकार-मात्र करने से इन्द्रजालिक के इन्द्रजाल की तरह सब कुछ गायब हो गया। वृक्षों की छायादार कतार के नीचे उन्होंने थोड़ी देर विश्राम किया। फिर पुनः प्रस्थान करके जाते-जाते सूर्य अस्त हो गया। फेंके जानेवाले शस्त्रभालो आदि की तरह अंधकार ने अंधकार को दृष्टि पर फेंक दिया अर्थात् रात हो गयी। योगियों के समान अंधकार ने पथ को अदृश्य के समान बना दिया। पाँवों से चलते-चलते थक जाने पर भी वह विनीत की तरह कुछ नहीं बोला। जब गाँव नजदीक आया, तभी विश्राम करने के लिए द्विज ने विद्यासिद्ध से कहा। सिद्ध ने कहा-हमारा क्या गाँव में रुकने का इरादा है? नहीं। हम तो नगर में रहेंगे। इस प्रकार मार्ग को छोड़कर अंतराल में जाकर स्थित हो गया। समाधि में स्थित होकर विद्यासिद्ध ने अपनी विद्या द्वारा देवों के विमान जैसा एक दिव्य सौन्दर्य युक्त विमान की रचना की। तुरन्त उस विमान से एक दिव्य सुन्दरी बाहर आयी और विद्यासिद्ध की अभ्यर्चना करके उसे आदरपूर्वक अन्दर ले आयी। उसमें आसक्त होता हुआ वह उस वास स्थान में चला गया। उसके ही जैसी उसकी अनुजा को गोभद्र को लाने का आदेश दिया। वह भी गोभद्र को बुलाकर अपने वास-स्थान में ले गयी। परस्त्री से विरत उस ब्राह्मण ने कहा-हे भद्रे! तूं मेरी बहन है। इन विषयों का क्या! ये तो पाले हुए चोरों की तरह है जो चिर संचित धर्म-धन को लूटकर चले जाते हैं। अपनी पत्नी में भी अत्यधिक आसक्ति विवेकियों के लिए योग्य नहीं है। तो फिर परनारियों में आसक्ति तो दुरन्त अपाय का हेतु है। जो कायर पुरुष अपनी इन्द्रियों को जीतने में समर्थ नहीं होता, वह न लक्ष्मी प्राप्त करता है, न गुणों को प्राप्त करता है और नही मोगरे के पुष्प के समान उज्जवल यश सुरभि को प्राप्त करता है। इस प्रकार ब्राह्मण ने उस स्त्री को वैराग्य-सार वचन कहे। अपने भाई की तरह संबंध बनाकर उसने भी कहा-हे भ्रात! तुम कृत्य-कृत्य हो। तुम सज्जनों के मध्य चमकती हुई रेखा के समान हो। तुम भविष्य में इसलोक और परलोक में श्रेयों को प्राप्त करोगे। परदारा-परिहार का इस प्रकार का परिणाम दृढ़सत्त्व वाले देवों को 110
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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