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________________ कपिल की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् नहीं हैं, क्योंकि मैं निष्परिग्रही हूँ। अतिथि को भोजन देने जितनी संपत्ति भी नहीं है। फिर नित्य भोजन कराने की तो बात ही कहाँ आती है। भोजन के बिना पढ़ना शक्य नहीं है। क्योंकि हे वत्स! मृदङ्ग भी भोजन के बिना ध्वनि नहीं करता। कपिल ने कहा-तात! आप मेरे भोजन की चिन्ता मत करिये। मैं भिक्षा द्वारा भोजन प्राप्त करके आपके पास पढूँगा। हाथी पर आरुद ब्राह्मण ही केवल भिक्षा से नहीं जीता, बल्कि ब्राह्मण को, जनेऊ बंधा होने से भिक्षा मिलती है। इन्द्रदत्त ने कहा-हे पुत्र! कदाचित् ऐसा हो सकता है। पर भिक्षावृति तो तपस्वियों की है। भिक्षा मिलने पर खा लेते हैं और नहीं मिलने पर तप करते हैं। तब अगर एक समय की भी भिक्षा अलाभ को प्राप्त होगी, में विघ्न पड़ेगा। और देर तक भिक्षा के लिए भ्रमण करने पर क्या तुम्हारे पाठ में अन्तराय नहीं पड़ेगी? इस प्रकार कहकर उसे साथ लेकर उस बालक के भोजन की चिन्ता से महा इभ्य शालिभद्र नाम के श्रेष्ठिप्रमुख के पास गये। ॐ भुर्भुवः आदि गायन्त्री मन्त्र के शब्दों का उच्चारण करते हुए ब्राह्मण की तरह आकर द्वार पर स्थित होकर आवेदन किया। श्रेष्ठि ने उन्हें बुलाकर पूछा-क्या कार्य है? उसने कहा-इस विद्यार्थी के लिए आपके घर नित्य भोजन की याचना करता हूँ। उसके प्रार्थना रूपी कल्पवृक्ष को श्रेष्ठि ने स्वीकार कर लिया। मनोवांछित सिद्ध हो जाने से उपाध्याय भी प्रसन्न हुए। सेठ ने उसी के सामने एक दासी को आदेश दिया, 'हे भद्रे! इस विद्यार्थी के आने पर तुम सदा इसे भोजन करा देना।' कपिल अब प्रतिदिन उसके घर भोजन करने लगा और प्रतिदिन उपाध्याय के समीप पढ़ने भी लगा। ___कपिल का हंसमुख स्वभाव, कामदेव सा रूप, यौवन विकारी होने से मनोजयी के लिए भी दुर्जेय था। अपनी जाति, गुण, गोत्र, कुल व कलाओं का तिरस्कार करके वह उस युवा दासी काश्यपी में अनुरक्त हो गया। उसके व यौवन से आकर्षित वह भी उसमें रंजित हो गयी। एक ही आत्मा के समान वे दोनों रमण करने लगे। एक दिन कपिल को दासी ने कहा-प्रिय! तुम ही मेरे प्रेमी हो। लेकिन तुम साधु की तरह द्रव्य रहित हो। अन्यों की तरह तुम भी कभी मेरे लिए पत्र-पुष्प आदि लाते, तो मुझे खुशी होती। कपिल ने भी स्वीकर किया और अपनी गरीबी को माना। अन्य किसी दिन नगर में दासी महोत्सव था। पत्र-पुष्प आदि नहीं मिलने से वह दासी भी उदास बैठी थी। उसको इस प्रकार देखकर कपिल ने पूछा-हे प्रिये! हिम से क्लान्त पद्मिनी की तरह क्यों दिखायी देती हो? उसने कहा-नाथ! सुबह दासियों का महोत्सव होने वाला है। अतः पुष्पादि सम्पदा से रहित होने के कारण यहाँ छिपकर बैठी हूँ। कपिल भी शाकिनी से ग्रस्त की तरह उसके दुःख से दुखित होकर धन के उपाय की चिन्ता में मौन मुद्रा में बैठ गया। तब उस दासी ने उससे कहा-खेदित मत होओ। यह तो स्त्रियों व कायर पुरुषों की कमजोरी है। यहाँ पर एक धन नाम के श्रेष्ठि है। उन्हें जो सूर्योदय से पहले जगाता है, वे उसे दो मासा सोना देते हैं। अतः प्रभात होने से पहले शीघ्र ही उसके घर जाकर उस सोये हुए श्रेष्ठि को मंगलकारी चतुर वचनों को पढ़ते हुए जागृत करो। कोई दूसरा इनसे पहले न आ जाय-इस प्रकार उत्सुक होते हुए दासी ने उसे अर्धरात्रि में ही भेज दिया। ठीक ही कहा गया है नार्थी दोषान् यदीक्ष्यते । अर्थी दोषों को नही देखता। वह भी लोलुपतावश रात्रि में ही मार्ग पर जल्दी-जल्दी जाता हुआ चोर समझकर आरक्षकों द्वारा पकड़ लिया गया और बाहर ही बन्धन से बाँध दिया गया। प्रातः काल होने पर उसे प्रसेनजित राजा के पास ले जाया गया। राजा के पूछने पर उसने अपना वृतान्त सुना दिया। उसके सद्भावों द्वारा कहे गये कथन को सुनकर राजा भी उस पर प्रसन्न हुआ। उन्होंने कहा-हे भद्र! माँगो। मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा। उसने कहा-हे देव! मैं थोड़ी देर ___107
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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