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सम्यक्त्व प्रकरणम्
संकास की कथा
परित्तसंसारी होता है। दाताओं द्वारा दान के लिए धन देने से संसार को परिमित बनाये जाने से वे परीत्त संसारी होते हैं। अथवा जिनद्रव्य के रक्षक रूप से दिये हुए प्रवचन से ज्ञान-गुणादि के आराधक होने से परीत्त संसारी होते हैं। अपने धन के प्रक्षेप से बढ़ते हुए प्रवचन वात्सल्य से प्रवचन प्रभावक होने से जीव तीर्थंकरत्व को प्राप्त करने में भी समर्थ होते हैं।
आगम में भी कहा हैअरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीसु । वच्छलया य एसिं अभिक्खनाणोवओगे य ॥१॥ दसणविणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारो । खणलव तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥२॥ अपुव्वनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥३॥ (आ.नि. १७९-१८१, प्रव. सा. गाथा ३१०-३१२)
अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत तथा तपस्वी-इन पर वात्सल्य भाव से, निरंतर ज्ञान उपयोग में रहने से दर्शन, विनय, आवश्यक, निरतिचार शीलव्रत पालन से, अतिअल्प भी तप से, चैत्य भक्ति से, वैयावृत्य से, समाधि, अपूर्व ज्ञान, गहन सूत्र भक्ति से प्रवचन की प्रभावना से इन कारणों से जीव तीर्थंकरत्व को प्राप्त करता है।
पूर्वार्द्ध की तीन गाथाओं में एक ही कथन रूप से जिन द्रव्य की अतिशयता बतलायी गयी है। इसी संदर्भ में संकास श्रावक के दृष्टांत को कहते हैं
|| संकास की कथा || परिपूर्ण चन्द्रमा के समान गोल जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में धनुष की दोरी चढ़ाये हुए धनुष की आकृतिवाला भरत क्षेत्र है। लोगों के पुण्योदय से सुवर्ण से बने हुए आवासवाली साक्षात् अलकापुरी के समान गन्धिलावती नगरी थी। वहाँ सम्यग् दर्शन शुद्ध आत्मवान्, बारह व्रतधारी, सर्वज्ञ द्वारा कही हुई क्रियाओं में आसक्त, जीवअजीव आदि तत्त्व को जाननेवाला, दोनों संध्या में प्रतिक्रमण करनेवाला, तीनों संध्या में अरिहन्त की पूजा करनेवाला, विधिपूर्वक दान देते हुए, पर्व-तिथि में तप करते हुए अजातशत्रु, संतोषी, विश्वास का आधार स्तम्भ, विलासभू श्रावक का पुत्र संकास नाम का श्रावक था। ___त्रैलोक्य की सारभूत सम्पूर्ण सामग्रियों से निर्मित, देवलोक से अवतीर्ण के समान एक सिद्धायतन था। हैमशैल की तरह ऊँचा, हिमशैल की तरह उज्ज्वल भुवन पर अद्भुत शक्रावत नाम का चैत्य था। वहाँ बहुत से श्रावक जन अक्षत आदि के द्वारा नित्य पूजा करने के लिए आया करते थे। अतः अतिशय धन उत्पन्न होता था। उस धन को देवद्रव्य के रूप में सभी श्रावक संकास के पास रख देते थे। ब्याज सहित वह धन लगातार बढ़ता जा रहा था। सारे दस्तावेज भी वह स्वयं ही बनाता था। उस पर विश्वास होने से कोई भी उसका विरोध नहीं करता था। इस प्रकार समय बीतता जा रहा था।
एक दिन कुछ अशुभ कर्मों के उदय से उसने चैत्य द्रव्य का भक्षण कर लिया। कहा भी हैधिक्कर्मणां गतिः। कर्मों की गति को धिक्कार है। अतः वह उसमें गृद्ध होते हुए, लुब्ध होते हुए, पश्चात्ताप नहीं करते हुए, आत्म निंदा-आत्मगर्दा नहीं करते
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