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पूजा विधि
सम्यक्त्व प्रकरणम् चैत्यवंदन प्रतिकर्म रूप से गृहस्थ का भी सात प्रकार का, पाँच प्रकार का तथा जघन्य से पुनः तीन संध्याओं में तीन प्रकार का होता है।।४७।।
चैत्यवंदन की संख्या विधि कह दी गयी। वह चैत्यवंदन प्रायः जिनघर में ही किया जाता है। इस सम्बन्ध से उसमें रही हुई विधि-विशेष का उपदेश बताते हैं
जिणमंदिर भूमिए दसगं आसायणाण वज्जेह । जिणदव्यभक्खणे रक्खणे य दोसे गुणे मुणह ॥४८॥ जिनमंदिर की भूमि में दस आशातना का वर्जन करना चाहिए। जिन द्रव्य के भक्षण व रक्षण में दोष व गुण को जानना चाहिए।।४८॥
आशातना दशक क्या है-यह आगे की गाथा में बताया जा रहा हैतंबोलपाणभोयणपाणहथीभोगसूयणनिट्ठवणं । मुत्तुच्चारं जूयं यज्जे जिणमंदिरस्संतो ॥४९॥
तम्बोल खाना, पानी पीना, भोजन करना, पेय पदार्थ पीना, स्त्री-भोग करना, सोना, बैठना, लघुनीति/ बड़ीनीति करनी, जूआँ खेलना इन दश बातों का जिनमंदिर के अन्दर त्याग करना चाहिए। उपलक्षण से मंदिर में बिखरे हुए केश से जाना, क्रीड़ा-खेल आदि, इधर-उधर घूमना, पाँव फैलाना, सहारा लेना, अट्टहास करना, लिङ्ग चेष्टा आदि भी वर्जनीय है।।४९।।
निष्कारण अयतनापूर्वक अवग्रह परिभोग भी आशातना का कारण है। इसकी विवक्षा करने के लिए अवग्रह स्वरूप को बताते हैं।
सत्थावग्गहु तियिहो उक्कोसजहन्नमज्झिमो चेय । उक्कोस सट्ठिहत्थो जहन्न नद सेस विच्चालो ॥५०॥
शास्तावग्रह अर्थात् तत्त्व का उपदेश देनेवाले शास्ता तीर्थंकर के अवग्रहवाला भूप्रदेश 'सत्थावग्गहु' कहलाता है। वह तीन प्रकार का है-उत्कृष्ट, जघन्य तथा मध्यम। उत्कृष्ट ६० हाथ, जघन्य नौ हाथ तथा मध्यम इन दोनों के मध्य का अवग्रह होता है।।५०।।
तथा और भी
गुरुदेयुग्गहभूमीइ जत्तउ चेय होइ परिभोगो ।
इट्ठफलसाहगो सय अणिट्ठफलसाहगो इहरा ॥५१॥ - गुरु व देव की अवग्रह की भूमि में आशातना के डर से अंगोपांग को संकुचित करके प्रयत्नपूर्वक वैयावृत्त्य, पूजा आदि के लिए बैठना, उठना, चलना आदि रूप परिभोग होता है। यह इष्टफल का साधक होने से सदा निवृत्ति प्राप्त करानेवाला है। इतरथा अर्थात् अन्यथा तो अनिष्ट फल साधक होने से दुर्गतिजनक होता है।
यहाँ शंका होती है कि देव व तत्त्व की विचारणा के बीच गुरु का प्रसंग कहाँ से आया? इसका समाधान यह है कि अवग्रह की साम्यता होने पर ही उनका उल्लेख आया है। उनका अवग्रहप्रमाण इस प्रकार है
अयप्पमाणमित्तो चउदिसिं होइ अवग्गहो गुरुणो । अणणुन्नायस्स सया न कप्पई तव्य पविसेउं ॥१॥ (प्रवचन सारोद्धार गाथा १२६)
अर्थात् गुरुओं का चारों दिशाओं में आत्म-प्रमाण-मात्र अवग्रह [साढे तीन हाथ भूमि] होता है। जिसे यह ज्ञात नहीं है, उसे सदा वहाँ प्रवेश करना नहीं कल्पता है।।५१।।
अब कुछ विशेषता बतलाते हैं
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