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________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् उसने आर्या से कहा-जल्दी लौटो। जल्दी लौटो। क्षुधा प्यास से व्याकुल उत्ताल कुक्षि वाला कराल केसरी सामने बैठा है। भैमी ने कहा-हे आर्य! भाग्यवशात् सिंह ही मुझे मेरे दुःख से मुक्त करायगा। अतः हे पिंगल मेरे दुःख को नष्ट होते हुए देखो। भैमी को सिंह के पास जाते हुए देखकर नल संभ्रमित होता हुआ सोचने लगा कि सिंह देवी को मारने के लिए कैसे समर्थ होगा। हा! यह वीरांगना मारी जायगी। अतः उसका निषेध करने के लिए उठकर के ऊँची आवाज में नल बोला-यह एकाकिनी, मार्ग श्रम से थकित, वियोगिनी अबला है। इसका घात करने में तुम्हारा क्या शौर्य है? अथवा इस अबला के भक्षण से क्या तुम्हारी भूख शान्त होगी। यह सिंह मेरी आवाज सुनकर भी क्यों नहीं लौटता है? तब उसने अपने मद के योग से देवी की रक्षा के लिए कहा-हे सिंह! तुम्हें क्या तीव्र भूख से कुछ भी भान नहीं है? अगर है, तो उसे छोड़ दो एवं मेरा भक्षण करो। मैं पतित हूँ तथा तुम्हारे सामने हूँ। इस प्रकार कहकर नल रंगभूमि में जाने को उद्यत हुआ। तभी राजा ने कहा-हे हुण्डिक! भ्रम में मत पड़ो। यह तो केवल नाटक मात्र है। नल ने लज्जापूर्वक विचार किया-शोक से मेरे द्वारा यह क्या किया गया? अपने आपको प्रकाशित कर दिया। पर कोई बात नहीं। राजा पूछेगा-तो कह दूँगा कि करुणा के अतिशय स्वरूप ही मैंने ऐसा कथन किया। __ सिंह के पास जाकर भैमी ने कहा-हो री! मेरे प्रिय सुविख्यात हैं। पर वह कहीं भी दिखायी नहीं दे रहे हैं। अतः मेरा भक्षणकर तुम अपना प्रिय करो। वैदर्भी के इस प्रकार कहने पर भी वह सिंह शीघ्र ही पश्चात्ताप पूर्वक पराङ्मुख हो गया। __ राजा ने कहा-हे हुण्डिक! दीप के जलने से अन्धकार की तरह इस सती के पतिव्रत रूपी व्रत के प्रभाव से यह सिंह स्वयं ही चला गया। नल ने विचार किया कि अच्छा हुआ, जो अनिष्ट स्वयं ही टल गया। देवी का शौर्य व्यर्थ नहीं गया। इस प्रकार सोचकर उसने उठकर कहा-हे नटों! इसकी प्राण रक्षा के लिए इसका सत्त्व कितनी बार स्फुरित होगा? स्फुरित होता हुआ भी कितनी बार सफल होगा? अतः यह न तो आस्था के योग्य है, न ही उचित है। जिस नाटक में राजा स्त्री वध देखने के लिए समर्थ नहीं है, वह नाटक ही नहीं है। ___मन्त्री ने कहा-हुण्डिक! तुम बार-बार क्यों अपने आपको भूल जाते हो? यह साक्षात् नहीं है, नाटक है। इस प्रकार मन को दृढ़ बनाकर स्व स्थान पर बैठ जाओ। भैमी ने कहा-इसने भी मुझे दुःखमुल क्यों नहीं किया? मेरा सहकार होने पर वह स्वयं ही पालतु की तरह लौट गया। हे दिशाओं! देखो! हे आर्यपुत्र! इस कृपालु ने भी मुझे शरण नहीं दी। बिना दोष के आप द्वारा छोड़ी गयी मैं अशरण हूँ। हे वनदेवी! मेरी यह दशा आर्यपुत्र को कह देना। हे तात! हे मात! जान लेना कि अपनी सुता अब नहीं है। इस प्रकार कहकर अश्रुओं को बहाते हुए लतापाश को गले से बाँधकर लटक गयी। राजा ने उठकर संरम्भपूर्वक हाथ मस्तक पर रखते हुए कहा-हे महासती! रूक जाओ! आत्महत्या मत करो। सपर्ण ने भी कहा-यह क्या है? शुभे! यह क्या है? जीवल ने भी कहा-हे आर्ये! प्राणों को व्यर्थ ही मत त्यागो। नल ने भी शीघ्र ही उठकर कहा-बस करो, देवी! बस करो। अति साहस मत करो। मुझ पापी के पाप संभार को अपने आत्म-वध से मत बढ़ाओ। मुझ मर्यादारहित पापी ने पतित्व के विपरीत कार्य किया है। हे सती-भूषण! 69
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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