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________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् इस वन में नल को ढूंढती हुई भैमी को कौन देखे? वह आँखों से बहते हुए अश्रुकणों से संपूर्ण पृथ्वी पर कीचड़ की रचना करने लगी। पिंगल ने कहा-हे आर्ये! उसने तुम्हें क्यों छोड़ा? अश्रुसहित दमयन्ती ने कहा-मैं अपना दोष नहीं जानती हूँ। शुरु से ही उनके प्रति अर्पित मैं उन्हीं के साथ वन को गयी। स्वप्न में भी मैंने पति को छोड़कर किसी अन्य की याचना नहीं की। फिर भी उनके द्वारा त्यक्ता बनी। अथवा अकल्याण को दूर करने के लिए ही आर्यपुत्र ने मेरा त्याग किया है। अथवा मुझसे विनोद करने के लिए मेरे साथ यह परिहास किया है। फिर आकाश को लक्ष्य करके भैमी ने कहा-हे नाथ! यह वन मनुष्य रहित है। मैं अकेली भयभीत हूँ। अतः खेल खेलना बंद करो। शीघ्र आओ नाथ! शीघ्र आओ। आकाश में प्रतिध्वनि सुनकर-मुझे क्या बोलते हो? अहो! मैंने इन्हें पा लिया-इस प्रकार वेग से भैमी दौड़ी। गान्धार ने कहा-हे वैदर्भी! यह सुनी जानेवाली तुम्हारी आवाज की प्रतिध्वनि है। तुम्हारे उच्चारण के आवेग से उत्पन्न हुई ध्वनि है। तुम्हारे द्वारा स्वयं नल शब्द नहीं सुना गया है। __दमयन्ती ने पूछा-आर्य! तो यह क्षण भर के विलंब से कैसे सुना जाता है? जब दमयन्ती ने गान्धार के प्रति आर्य शब्द का प्रयोग किया, तो गान्धार ने कहा-अभी-अभी तुमने क्या कहा? अर्थात् तुम्हें प्रज्ञप्ति करने की मेरी शक्ति नहीं है। इस प्रकार दमयन्ती के द्वारा ज्ञापित किया गया। तभी अपनी छाया को देखकर भैमी ने सहसा उच्च स्वर से कहा-भाग्य से मैंने आपको देख लिया। हे नाथ! इस समय कहाँ जाते हो? दौड़ती हुई शीघ्रता से वह एक क्षण के लिए सीत्कार करके रुक गयी। पाँव द कुश से विद्ध हो जाने के कारण उसने साश्रु नयनों से गान्धार से कहा-मेरे पाँव का काँटा निकाल दो। उसी क्षण वापस कहा-रूक जाओ। रूक जाओ। मैं स्वयं ही निकाल लूंगी, क्योंकि मैं पर नर का स्पर्श नहीं करती। राजा ने शीघ्रता से उठकर उस सती को नमस्कार किया। जीवल ने कहा-देव! यह क्या है? आप अपने सिंहासन पर बैठिये। यह तो नटों की नाट्यकला है। राजा लज्जित होता हुआ वापस बैठ गया। नल दुःखपूर्वक साश्रुनयनों से अपने मन में ही विचार करने लगा-मैं बधिरता को धारण कर लूँ। दृष्टि की बन्ध्यता को पा लूँ। क्योंकि उसे रोते हुए न सुना जाता है, न ही उसकी दुर्दशा को देखा जाता है। गन्धार ने अश्रुपूर्वक कहा - हे पृथ्वी देवी! दैव वश से यह राजकन्या आज पादचारी हो गयी है। तो क्या इसे दर्भसूचियों के द्वारा बींधा जाना चाहिए? स्त्रियों की आपदा में अन्य स्त्रियों का सहायता करना ही उचित है। निर्बाध क्षितिपति ने जो किया, वह तो पुरुष की कठोरता है। मन्त्री ने रोष सहित खड़े होकर कहा-हे कुशील पांसन! जिसने पतिव्रता का त्याग किया, उसे भी क्षितिपति बोलता है? राजा ने कहा-हे अमात्य! स्वस्थ होओ। यह तो नाटक है। तब अमात्य नल को क्षितिपति कहने के प्रति लज्जित होकर बैठ गया। नल ने कहा-वन में इस स्त्री को एकाकी छोड़ने में हे राजन्! नल का दोष नहीं है। राजा ने कहा-तो फिर किसका दोष है? जो इसकी दुर्दशा देख रहे हैं, क्या उनका दोष है? नल ने कहा-नहीं। उनका भी दोष नहीं है, अपितु यह तो दिशापालों का न्याय है। कर्मचण्डाल ने तो उसी समय भस्मसात कर दिया। राजा ने रोषपूर्वक कहा-हे दण्डिक! तुम वृथा ही लोकपालों को उपालम्भ देते हो, लेकिन उस पापी को नहीं - 67
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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